आभार: http://www.123rf.com/photo_4644624_indian-girl-catching-her-sari-in-a-bending-posture.html |
जो पूछी बताता हूँ,
अपनी सुनाता हूँ-
अपनी सुनाता हूँ-
अमराई की पछुआ में,
नशा छाँव महुआ में
नशा छाँव महुआ में
नमकीन तीते टिकोरे की, खटाई सी लगती हो।
लूह चले चाम पर,
परखन नाम पर-
परखन नाम पर-
जो दीठ से देखी न जाय,
जीभ से कही न जाय
जीभ से कही न जाय
अधकच्चे रसाल की, भावी मिठाई सी लगती हो।
कने कने घाम में,
सँवराई सी शाम में-
सँवराई सी शाम में-
भटकन न नाप सके,
डरा नहीं पाप सके
डरा नहीं पाप सके
छूने की चाह जगाती, लजाती ललाई सी लगती हो।
.
.
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छुट्टियों के दिन बीते,
रह गये बखार रीते-
रह गये बखार रीते-
तड़पन जो ला न सकी,
नेह लगन पा न सकी
नेह लगन पा न सकी
सूने खलिहान लुटी, शहर की कमाई सी लगती हो।
बहुत दिनों से यह कविता ड्राफ्ट में पड़ी थी। आज दिख गई तो सोचा कि निकाल दूँ। अधूरी सी लगी। पता नहीं किस मन:स्थिति में कब रची गई थी लेकिन आज उदास लगी, ज्यों कसक बाकी रह जाय। अंतिम बन्ध से भी यही लग रहा है।
जवाब देंहटाएंमेरी उम्र तक पहुंचेगें तो इस कसक की तासीर और बढ़ जायेगी -अभी भी बहुत उर्जित यौवन शेष है बन्धु!कविता की टीस कलेजे आ लगी है -यह आपकी वह पीड़ा है जो सार्वजनीन होने को लहकती है !
जवाब देंहटाएंएक विवाहित पुरूष द्वारा ऐसी कविता तबहीं लिखी जाती है जब या तो श्रीमती जी से किसी बात पर रूठैती चल रही हो और गैलरी में खड़े होकर बाहर का दीदार किया गया हो....अथवा किसी शाम श्रीमती जी बिना नून तेल लकड़ी की बात छेड़े, बिना घरेलू कतर ब्योंत वाली बतकही उभारे अचानक नेह बरसाती लगें :)
जवाब देंहटाएंएक तीसरी संभावना भी है लेकिन.....जाण दो....फिर कभी :)
और हां, कविता एकदम मस्त है...देशज फुलौरी जैसी लहकती चहकती !
जवाब देंहटाएंएकदम्म सजावे दही में डुबोई हुई
हटाएंवस्त्रों का सौन्दर्य तो अब तो आधुनिकता में छिपता जा रहा है, यह चित्र कईयों का सौन्दर्यबोध अनुप्राणित कर सके संभवतः।
जवाब देंहटाएंbhtrin rchnaa ke liyen bdhaai ..akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंभारतीय पारंपरिक परिधान में सजी नारी की सुंदरता को देशज शब्द-बिंबों के माध्यम से खूब अलंकृत किया है आपने। सूने खलिहान लुटी, शहर की कमाई सी लगती हो।..यह पंक्ति सबसे अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंपंचम जी की चुटकी को भूल प्रशंसा में रमाइये। एकाध ऐसे डाफ्टस् और पड़े हों तो उसे भी छाप जाइये।
:)
जवाब देंहटाएं[आजकल अपनी टिप्पणियाँ छपने के बाद भी ग़ायब हो जा रही हैं इसलिये उन्हें सन्क्षिप्ततम रखने की कला सीख रहा हूँ, जैसे जेबकतरी के लिये प्रसिद्ध नगरों की भीड़ भरी बस यात्राओंके दौरान बटुए में कम-से-कम पैसे रखने का प्रयास होता था]
ये सतीशजी क्या कह रहे हैं ? :)
जवाब देंहटाएंविवाह कर लिजिए अभिसेक बाबू, उसके बाद आप बिना बताये ही समझ जायेंगे :)
जवाब देंहटाएंकैसे लिखी जाती हैं ऐसी कविताएं ??
जवाब देंहटाएं......लिखना नहीं है .....बस पूछ रहा हूं...!
प्रेम सिखा देता है।
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