तुम्हारी उंगली पकड़
यहाँ मैंने चलना सीखा ।
पैर कहाँ रखें कैसे रखें
तुमसे सीखा ।
तुमसे हुए जाने कितने सम्वाद
सुलझाते रहे गुत्थियों को।
अचानक इतने चुप क्यों हो गए?
चुप्पी भी ऐसी कि कुरेदने से न टूटे !
....
मौन तुम्हारा अपना वरण है।
मुझे उस पर कुछ नहीं कहना ।
लेकिन मैं अब किसे ढूढूँ
अपना मौन तोड़ने को ?
.....
भीतर का हाहाकारी मौन
जिस किसी के आगे नहीं तोड़ा जाता
अन्ना ! नहीं तोड़ा जाता।
यह संबोधन कुछ कहता है
जवाब देंहटाएंकहता अपने में रहता है ...
इस संवेदना-सूत्र को पकड़ पा रहा हूँ ! ऐसा लगता नहीं ।
कई बार ऐसा होता है कि आप कुछ सहज भी कहना चाहें तो यह अतिरेकी मानस उसे कूटस्थ कर देता है ।
मैं क्रमशः कविता की वृहद संभावनाओं से जूझता, उसे आत्मसात करता आगे बढ़ने लगता हूँ ।
संबोधन का मौन मुझे परेशान कर रहा है... कुछ संचरित करें इधर
कविता में ही कहीं hyperlink है।
जवाब देंहटाएंअन्ना अन्नदाता कुछ तो बोलो !
जवाब देंहटाएंकाफी दिनों से अन्ना के ब्लॉग मौन है, इतने वाचाल कि मौन का ये अंतराल सन्नाटे का बीहड़ लगता है.टिप्पणी में कुछ लिखें.
जवाब देंहटाएंमन को छू लेने वाले भाव। बधाई।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
माननीय अन्ना के लेखन की मैं भी प्रशंसक हूँ.
जवाब देंहटाएंआज कल उनके सभी ब्लॉग मौन हैं..शायद त्योहारों के कारण?
उनके बताई विधि से मोदक मैं ने बनाये भी थे.
सुब्बू चाचा[Malhar] ,शास्त्री जी और उनका हिंदी प्रेम और लेखन अनुकरणीय है.
आशा है आप की कविता के उत्तर में वे अवश्य कुछ जवाब देंगे.
भीतर का हाहाकारी मौन
जवाब देंहटाएंजिस किसी के आगे नहीं तोड़ा जाता
अन्नाsssssssss....
काश यह हायपर लिंक नहीं दिया होता....
छूती है बात..