शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

फागुनी मुक्तक - का तुम पहिरी हमरो पैजामा ?

(1)
गए हाट गुलाल मोलन को
तोहें देखे, पुनि  देखे लाली तोहार
हाथ पकड़ तोहे खींच लाए
रह गयो मोल अमोलन ही।
पलखत देख जो रगड़े गाल -
तुम वैसे ही लाल
रगड़ाय के लाल
लजाय के लाल
तोरी तिहरी लाली देख निहाल
हम हो गए लाल
लाल लाल - 
बिन गुलाल के लाल।
(2)
काहे सखियन बीच मोहे बदनाम करो - 
हम नाहिं तोरे तोहरी अँगिया के बन्ध 
साँच कहो, बिन शरमाय कहो
देख के हमको जो ली उसाँस
अँगिया खुली सब बन्ध गयो -
आन मिलो कुंज गलिन 
भिनसारे सँकारे साँझ अन्हारे
कर देब पूरन तोरे मनवा के आस
हौं खुलिहें अँगिया खुलिहें
सब खुलिहें
जब दुइ मन खिलिहें
खुलिहें। 
(3)
मधु रात भली 
बड़ि बात चली
जो जागे सगरी रैन,  
रहे सोवत
बड़ी देर भई।  
देख सभी मुसकाय हँसें 
हड़बड़ जो दुआरे गए - 
आरसि दिखाय चतुर हजाम 
वदन कजरा दमके सेनुरा।
ठठाय हँसे पुनि देख के सब
हम पहने रहे सलवार      
का तुम पहिरी हमरो पैजामा? 

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

फागुन फागुन ......फागुन फागुन

(1) 
फागुन ने चूमा
धरती को -
होठ सलवट 
भरा रास रस। 
भिनसारे पवन 
पी गया चुपके से -
.. खुलने लगे
घरों के पिछ्ले द्वार । 
(2) 
फागुन की सिहरन 
छ्न्दबद्ध कर दूँ !
कैसे ?
क्षीण कटि - 
गढ़न जो लचकी ..
कलम रुक गई।
(3) 
तूलिका उठाई - 
कागद कोरे
पूनम फेर दूँ।   
अंगुलियाँ घूमीं 
उतरी सद्यस्नाता -
बेबस फागुन के आगे। 
(4) 
फागुन उसाँस भरा 
तुम्हारी गोलाइयों ने -
मैं दंग देखता रहा
और 
मेरी नागरी कोहना गई ।
लिखूँगा कुछ दिन
अब बस रोमन में -

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

...फाग आग आँच

.. फाग आग आँच
नरम हुई कड़ियाँ
- फिर टूटीं।

पसर गया प्रेम
शब्द शब्द आखर आखर।
... तूने क्या, कैसे, क्यों बाँध रखा था ?

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

"मैडम को सफेद अच्छा लगता है।"



मैंने पूछा था - यह सफेद ड्रेस? अब स्कूल जाओगे?
उसने कहा - बड़े भैया जी का है।
अपने साँवले हाथों को देखते
नजर झुकाई और जोड़ा..
"मैडम को सफेद अच्छा लगता है।"

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

नजर पिचकारी

फेर दो रे साजन नजर पिचकारी
न समझो मैं कारी
चढ़ जाएगी सारी नजर पिचकारी।

दाल में नमक ननदिया छिनारी
बिष बढ़ाई बाति महतारी पे डारी
न समझो मैं कारी।

मटकी थी भारी दही छलकी अनारी
सासु गारी दिहिन न सहाया मैं नारी
न समझो मैं कारी।

मेह ढलका नहीं मोरि अँखियाँ सकारी
जोत इनमें बसी तोरी नेहिया सँभारी
न समझो मैं कारी।

फेर दो न साजन नजर पिचकारी
चढ़ जाएगी सारी नजर पिचकारी। 

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

मुझसे पहली सी मुहब्ब्त . . .

मेरे प्रिय उर्दू कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का आज जन्मदिन है। अभी अभी पता चला। इतने कम समय में कुछ नहीं हो सकता, इसलिए अपनी पुरानी पोस्ट दुबारा दे रहा हूँ। 
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रात का समय. एक किशोर बी बी सी हिन्दी सेवा की रात्रि कालीन सभा सुन रहा है. मादक स्वर में एक नज़्म गूँजती है ...मुझसे पहली सी मुहब्ब्त मेरी महबूब न माँग.
. . आठवीं (या नवीं) में पढ़ते किशोर को पहली बार यह अनुभव होता है कि प्यार क्या है ! या यूँ कहें कि क्या हो सकता है !!
... वह किशोर मैं था. फ़ैज रचित यह नज़्म नूरजहाँ गा रहीं थी. मन में फॉंस सी चुभ गई. बहुत बर्षों के बाद मुबारक बेग़म के गाए गीतकभी तनहाइयों में यूँ हमारी याद आएगी . .. को सुनते ही पुरानी फाँस हिल सी गई. मैंने फ़ैज की नज्म और नूरजहाँ के स्वर में उसका ऑडियो तलाशना प्रारम्भ किया. दोनों मिल गए . नज्म प्रस्तुत है. ऑडियो आप स्वयं तलाश लें.

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग
मैंने समझा था के: तू है तो दरख्शाँ है हयात 1
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर2 का झगडा क्या है?
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को है सबात3
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है?
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निग़ूँ4  हो जाए
यूँ न: था मैं न फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दु:ख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत5 के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म6
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब7 में बुनवाए हुए
जा-ब-जा8 बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथडे हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों9 से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे?
अब भी दिलकश10 है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे?
और भी दु:ख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत5 के सिवा
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग .                                     नक़्श-ए-फ़रियादी भाग-2, 1941, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


(साभार: राजकमल पेपरबैक)
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1. सुखमय जीवन, 2. सांसारिक दु:ख, 3. ठहराव, 4. बदल जाना, 5. मिलन का आनन्द्, 6. क्रूरता का अँधकारमय जाल, 7. कीमती वस्त्र 8. जगह जगह, 9. बीमारियोँ की भठ्ठी , 10. आकर्षक 
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इस नज़्म की गहराई को दो बातों से मैंने समझा है:
"तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है?" और भरपूर उर्दू में भी "ग़म" के बजाय "दु:ख" शब्द का प्रयोग.
नज्म बहुत सरल सी दिखती है, प्रेमी प्रेमिका से कह रहा है कि तुम अभी भी सुन्दर हो लेकिन जमाने में इतने दु:ख दर्द हैं कि मैं अब तुम्हारी आँखों में बस डूब कर ही नहीं रह सकता, मुझे तो तमाम जुल्मों सितम भी दिखते हैं और तुमसे मिलन के बजाय जुल्मों सितम को कम करना मुझे अधिक आकर्षित करता है.
यह नज्म जब लिखी गई थी तो समाजवाद और कम्यूनिस्ट आन्दोलन का जोर था और उस ज़माने के हर सेंसिबल युवा की तरह फैज़ को भी इस विचारधारा ने बहुत प्रभावित किया.
लेकिन! लेकिन !!
फैज के अन्दर इस पुराने देश के संस्कार भी रक्त बन कर बह रहे थे और जुल्मो सितम को देखने, बूझने और भोगने से उत्पन्न दु:ख ने अलग ही रास्ता लिया. यहीं यह नज्म कइ स्तरों वाली हो जाती है. जन के दु:ख से दु:खी अभिव्यक्ति समाजवादी सोच जैसी दिखते हुए भी सूफी दर्शन, द्वैत और विशिष्टाद्वैत की सीढ़ियाँ चढ़ती बौद्ध दर्शन की करुणा में समाहित हो जाती है.
किसी ने कहा है कि श्रेष्ठ रचना रचयिता के कलम से निकलते ही उसकी न होकर सबकी हो जाती है. फिर उस पर रचयिता का कोई बस नहीं रह जाता और उसके विभिन्न अर्थ स्वयं रचयिता को भी स्तब्ध कर देते हैं.... ऐसा तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था !
'तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है?'
बहुत सी कविताओं और फिल्मी गीतों में बदले रूपों में आ आ कर यह अभिव्यक्ति आज कुछ पुरानी सी लगती है लेकिन कल्पना कीजिए जब यह लाइन पहली बार आई होगी. प्रेम की गहनता को व्यक्त करती इससे अच्छी लाइन हो ही नहीं सकती !
सूफी मार्ग में ईश्वर को प्रेमिका रूप में भी देखा जाता है.
सब कुछ भूल कर दीवानगी की उस हद तक पहुँच जाना कि बस मासूक की आँखों के सिवा कुछ न दिखे और दुनिया की सारी बहारें ठहर सी जाँए...जरा सोचिए फैज़ एक आम लड़के और लड़की के प्यार को भी किस तरह से ट्रीट करते हैं !! और उसके बाद का आघात जहाँ सारे जहाँ का दर्द अपना हो जाता है... जैसे कि वह मासूक जन जन में समा जाय. वह दर्द, वह यातना, वे षड़यंत्र, वे दर दर बिकते जिस्म, शोषण, वह तिल तिल गलन...फैज़ सब भोगते हैं. .और उमड़ता है दु:ख , घनघोर सर्व समाहित करता दु:ख..
दु:ख शब्द में जो सान्द्रता है वह 'ग़म' में नहीं.
फैज़ जुल्मो सितम और उसकी पीड़ा की सान्द्रता को दर्शाने के लिए दु:ख शब्द का प्रयोग करते हैं और कविता बुद्धत्त्व की गरिमा से उद्भासित हो जाती है.. सर्वं दुक्खम. ..
ज्ञान के बाद ही तो मुक्ति है.
अब मुझसे पहली सी मुहब्बत मत माँगो.
.

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

मुक्तछ्न्दी - ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ - क्या? अरे शेर ।

चौंक मत गर कहूँ कि 
तू जो गा दे संग 
तो फाग होली गुलाल हो
इस वक़्त न दिखा ये अंदाजे बयाँ 
कि कल दिल में मलाल हो -
जो कहना था जिस वक़्त न कहे
शेर कहते रहे जब लगाने थे कहकहे।
माना कि बहुत रंग हैं तेरी इबारत में
हर्फ ही न रंगे इस मौसम तो क्या कहे।
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आचारज जी टाइप लोगों से अनुरोध है कि रंग में तंग न डालें। इस समय उनकी कोई बात नहीं सुनी जाएगी।
 

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

पुरानी डायरी से - 14: मस्ती के बोल अबोल ही रह गए

फाग महोत्सव में अब तक:
(1) बसन तन पियर सजल हर छन
(2) आचारज जी
(3) युगनद्ध-3: आ रही होली
(4) जोगीरा सरssरsर – 1
आज पुरानी डायरी उठाया - यह देखने के लिए कि फाग से सम्बन्धित कुछ मिल जाय। निराश हो ही रहा था कि एक टुकड़ा नीचे गिरा, देखा, आस बँधी, पढ़ा और फिर ... कुछ मिला था लेकिन शिकायत भरा। कागज का वह टुकड़ा फाड़ कर अलग से डायरी में रखा था। देखने से लगता है कि दूसरी डायरी का अंश है। उस पर 12 मार्च दिन सोमवार अंकित है। समय सन्दर्भ के लिए पलटा तो अनुमान लगाया कि बात 1993 की होनी चाहिए (ज्योतिषी लोग ही बता पाएँगे कि ऐसे दिन होली कब पड़ी होगी, ये बात तो पक्की बता सकते हैं :))। एक सम्भावना यह भी है कि उस संवत में मैंने पुरानी डायरी बस दिनांक मिलाते हुए प्रयोग किया होगा। मध्यमवर्गी युवक उपहार में मिली डायरियों को ऐसे उपयोग में लाते रहे हैं। अस्तु..
अपनी तमाम डायरियाँ मैंने नष्ट कर दीं लेकिन इस टुकड़े को उस समय भी बचा लिया था।.. शिकायत पर हँसी आई। आदमी का मन भी अजीब होता है - जैसा खुद रहता है, आस पास भी वैसा ही ढूँढ़ लेता है। सुना है कि मिस्री पिरामिडों के शिलालेखों में भी ऐसी बाते पाई गई हैं जो कहती हैं कि ज़माना दिन ब दिन खराब होता जा रहा है। युवक उच्छृंखल होते जा रहे हैं... वगैरा वगैरा। 
..नष्ट की जा चुकी उस डायरी के इस बचे अंश में गाँव की होली के बारे में यह लिखा है:
06022010होली। उत्साह और प्राकृतिक ग्रामीण ढंग का आनन्द दिनों दिन कम होता जा रहा है।
उसके बाद दूसरे रंग की पेन से यह कविता है जिसमें पेंसिल से किए संशोधन भी दिखते हैं। साझा कर रहा हूँ:
ढोलक की थाप गई चउताल की ताल के गीत सारे बह गए।
रंगों की ठाठ गई, भाभियों के बोल अजाने जाने क्या कह गए।
बदल गए लोग बाग, बदली बयार अब, मीत सारे मर गए।
कचड़ा अबीर भया, भंग के रंग गए, मस्ती के बोल अबोल ही रह गए।
जाने क्यों आशंका सी उठ रही है - इस बार कहीं हिन्दी ब्लॉगरी की होली भी ऐसी न हो जाय ! ... धुत्त जोगीरा ।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

जोगीरा सरssरsर - 1

इस ब्लॉग पर फाग महोत्सव जारी है। अब तक की ये प्रविष्टियाँ हैं:
(1) बसन तन पियर सजल हर छन
(2) आचारज जी
(3) युगनद्ध-3: आ रही होली
उत्तर भारत के उन क्षेत्रों में होली में कबीरा और जोगीरा गाने की परम्परा रही है जहाँ कभी नाथपंथी योगी और कबीरपंथी सक्रिय रहे। प्रचलित कुरीतियों और परम्पराओं पर इन लोगों ने तीखे प्रहार किए। प्रतिक्रिया में जनता ने होली के अवसर पर गाए जाने वाले अश्लील गीतों में उन्हें सम्मिलित कर लिया। इन क्षेत्रों में यह परम्परा पहले से भी थी कि नहीं यह संस्कृत, पाली, प्राकृत और लोकवाणी के ज्ञानी जन ही बता पाएँगे।  
मुझे लगता है यह परम्परा क्षेत्रीय रही है क्यों कि सूरत और सिलवासा में मैंने होलिका की केवल विधिवत पूजा होते देखी है। यहाँ तक कि नव विवाहित जोड़े गाँठ बाँध कर परिक्रमा भी करते हैं। श्रीमती जी बता रही हैं कि लखनऊ में भी केवल पूजा होती है। अस्तु..
इन जोगीरों और कबीरों में अश्लील गायन के अलावा हास्य, व्यंग्य, अन्योक्ति और प्रश्नोत्तर शैली में सामाजिक और राजनैतिक मुद्दे तक उठाए जाते रहे हैं। ब्लॉग पर भी ऐसा होना ही चाहिए। मैंने लम्बी सोची थी लेकिन कुछ समयाभाव और कुछ तत्काल की प्रबलता, इसे शृंखलाबद्ध निकालना तय किया ।
मौसम खराब होने की तमाम भविष्यवाणियों और उनके प्रशंसात्मक अनुमोदनों के बावजूद आज भी लखनऊ में जब प्रफुल्लित अरुणोदय देखा तो अपने को रोक नहीं पाया :) 
प्रथम कड़ी अदा जी की इस पोस्ट पर आई एक टिप्पणी को लेकर है। आप लोग भी टिप्पणियों या लेख कविता के माध्यम से फगुनी बयार को फैलाने में सहयोग दें। एक बात का ध्यान रखें कि अश्लीलता न आए, महिलाओं का अपमान न हो - उल्लास में अपमान और अश्लीलता का क्या काम? छींटाकशी फुहार जैसी हो , तीखी हो तो भी गुदगुदाती हो। कठिन काव्य कर्म है यह - लखेरई नहीं। 
उनकी कविता की सम्बन्धित पंक्तियाँ ये हैं:
"बड़ा है कौन यां ग़र तुम, कभी इस बात को सोचो
चमारों के छुए पर ये बिरहमन क्यूं नहाते हैं..?"

 टिप्पणी और प्रतिटिप्पणी साइड के स्क्रीनशॉट में लगी हैं।  






और अब जोगीरा:
के बाति के तान बनल बा के बाति के बाना ?
के बाति के जाति बनल बा के बाति के दाना ?
अदा बाति के तान बनल बा जुदा बाति के बाना
बिना बाति के जाति बनल बा दिलफुलवा पगलाना।
देखs खाली दाना..
.. हा जोगीरा सरssरsर

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

युगनद्ध -3: आ रही होली

सड़क पर बिछे पत्ते
हुलस हवा खड़काय बोली
आ रही होली।


पुरा' बसन उतार दी
फुनगियाँ उगने लगीं
शोख हो गई, न भोली
धरा गा रही होली।


रस भरे अँग अंग अंगना
हरसाय सहला पवन सजना 
भर भर उछाह उठन ओढ़ी 
सजी धानी छींट चोली। 


शहर गाँव चौरा' तिराहे
लोग बेशरम बाग बउराए
साजते लकड़ी की डोली 
हो फाग आग युगनद्ध होली । 

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

आचारज जी

फाग पर्व शुरुआत यहाँ से है। 
फिर इहाँ 
फिर इहाँ। 
और अब नीचे ताकिए।
आप भी योगदान कर सकते हैं इस संक्रामक रोग को फैलाने में ।
इंटरनेट पर भी बसंत में आम बौराना चाहिए। रंग है, हुड़दंग है। 
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फागुन आइल आचारज जी
लागे पहेली सोझ बतियाँ आचारज जी
अरे, आचारज जी।
 
नेहिया ले फन्दा मदन बौराया
मदन बौराया मदन बौराया
तेल पोतलें देहियाँ आचारज जी
न खाएँ गुलगुल्ला आचारज जी
आइल फागुन लखेरा आचारज जी।

बिछली दुअरवा लगन लग घूमे
लगन लग घूमे लगन लग घूमे
ताकें हमरी रसोइया आचारज जी
न खाएँ गुलगुल्ला आचारज जी।

मकुनी औ मेवा रोटी पकवलीं
चटनी पोत बिजना परोसलीं
बरजोरी से आए आचारज जी
अरे, आचारज जी।
चटकारा ले खाएँ आचारज जी
जो देखे कोई थूकें आचारज जी

न खाएँ गुलगुल्ला आचारज जी।

अरे आचारज जी। 

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

बसन तन पियर सजल हर छन

यह कविता देवेन्द्र जी के इस गीत को पढ़ने से उपजी है।
हमरा कउनो कुसूर नाहीं है।
इसमें किसी के लिए छिपा सन्देश भी है। आशा है समझ जाएँगें।

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बसन तन पियर
सजल हर छन।

हरख हरखन
टुटल बरत
नवरतन बरजन ।

मदन अगन मगन मन
हर मन सगुन धुन
गुन गुन ....

ह म श टुन टुन
खदकत अदहन धुन!
..अवगहन

बसन तन पियर
सजल हर छन
छन छ्न ...
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सरलार्थ:
बसन - वस्त्र, पति
पियर - पीला, प्रिय
सजल - नवरस से भरा, सजा हुआ
छ्न - क्षण, छन छन की ध्वनि
हरख - हर्ष
हरखन - प्रसन्नता
टुटल - टूट गया
बरत - व्रत
नवरतन - नवरात्र, नव-रति
बरजन - वर्जना
अगन - अग्नि
सगुन - शुभ आगम का संकेत
खदकत - खौलता हुआ
अदहन - चावल पकाने के लिए चूल्हे पर चढ़ाया हुआ खौलता पानी
अवगहन - अवगाहन, कोई बात जानने या समझने के लिए उसके संबंध में की जानेवाली खोज, छान-बीन या मनन