शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

विविध

(1)
तुम्हारा कैमरा कुछ भी कहे 
मेरी अंतर्मुखी आँखें कहती हैं 
न रोपे होते चाय बगान तो पहाड़ियाँ सुन्दर होतीं
(2)
समझने लगा हूँ कान्ह तुम्हारा अभिशाप 
आज्ञा चक्र का बहता मणि दुर्गन्ध लिये
और मन में धरे अनेक धर्म षड़यंत्र घाव 
न थमते अश्व की तरह हजार वर्षों तक 
भटकता प्रतिहिंसक मुझमें अमर है!
(3)
जिसे बहलाते हो पैरासिटामॉल की गोलियाँ दे 
वह बच्चा नहीं, नसों में जन्म लेता बुढ़ापा है
(4)
रेमेसिस! 
हजारो वर्षों से सोई तुम्हारी ममी की
गलती त्वचा का इलाज यौवन नगरी पेरिस में हुआ 
पढ़ कर मैं सोचता हूँ 
शरों से भीष्म न छिदे होते, होती जो उनकी ममी 
कृष्ण के साथ सोई दिल्ली के किसी संग्रहालय में 
गीता के सात सौ क्या तब भी मिलते 
एक लखिया महाभारत में?
(5)
बनारस की बिजली जैसे 
पिटाया बच्चा देर तक रोने के बाद 
ठहर ठहर अहके!
(6)
, न हाथ जोड़ 
यह जो रुख पर आब है, कोई रुहानी नूर नहीं 
देह में उफनता अम्ल है जिसकी आग अभुआ रही है
तिल तिल जलन क्षण छन मौत

रविवार, 3 अगस्त 2014

तुम आना

तुम आना जब
आँखें केवल पुतलियाँ रह जायेंगी
कान वायु अवरोध तने लघु वितान भर
त्वचा गुरुत्त्व संघर्ष बाद झूलती खंडहर 
सोई होगी नाभि से उठती नागिन लपलप 
थक कर मस्तिष्क में।

तुम आना जब
कटि से नीचे होगा पक्षाघात और हाथ
होंगे कर्म कम्पनों के अवशेष भर।

तुम थामना तब
मुझे वैसे ही जैसे उठाती है माँ
शिशु को दूध पिलाने, आँचल छाँव
देना कि इच्छा बची होगी नि:श्वास ऊष्मा सी
गाना लोरियाँ जिनमें होगी गोरियाँ प्रेम भरी
तत्पर कुमार के मधु चुम्बन को
सुन न पाऊँगा लेकिन अधर होंगे मर्मर
गाने को देहराग मन के आँगन किल्लोल।

तुम आना जब
मैं लूँगा पुनर्जन्म, गाना सोहर उल्लास भर
कि तुम्हें मिलेगा प्रेम एक बार फिर
भरना सिसकारी उत्सव एकांत बीच
वासनाओं को देना अमरत्त्व वरदान
तुम आना। 

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~गिरिजेश राव~