मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

कहना

वो जीने को काम तमाम कहना
मैं सुबह कहूँ तो शाम कहना
खुश होना और बहुते खराब कहना
थे सलामी को राजी वे पहली नज़र
मैंने देरी से जाना आदाब कहना! 

रविवार, 7 अप्रैल 2013

घर से भागे रूठे बच्चों की तरह


तुम्हारी स्मृतियाँ -
घर से भागे रूठे बच्चों की तरह।
जब आती हैं वापस
घर सँवरता है
बनते हैं तरह तरह के पकवान।
डाइनिंग टेबल पर जो धूल थी ही नहीं;
पोंछ दी जाती है।
नमकदानी की सीलन
ग़ायब होती है।
स्वाद छिड़कने को
मिर्चदानी उठाई जाती है।
भोजन के बाद
थाली की जूठन में
चित्रकारी करती हैं अंगुलियाँ
लिखती हैं एक नाम
और
स्मृतियाँ
चली जाती हैं डिनर के बाद-
उन्हीं रूठे बच्चों की तरह।
वही पुरानी शिकायत-
नाम ग़लत क्यों लिखा?

महुवा

झुकी घनेरी केशराशि
महुवा फूले बरगद गाछ।
महुवा महुवा - साँसें बोझिल
महुवा महुवा - थकी देह
महुवा महुवा मद - मचले मन
महुवा महुवा - गेह गेह!

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

उमसते प्रात में साँवरी

प्रातकी सूख गई,
केश तुम्हारे हुये गीले
नयनों ने चित्र टाँके,
फूल छिटके नील पीले।

अधर लाली खुल गई,
श्वेत बेला झाँकती
गन्ध मधुरा साँस दहका
निकटता राँधती।


साँवरे कपोल मस्तक,
ओस फूटे स्वेदकूप
रक्त चन्दन ऊष्ण उमगे
रूपसी रूप रूप।

थम गयी कामना,
निहारती आराधना
देह भीगे ग्रीष्म सी,
शीत सम सम्भावना।