बुधवार, 27 अप्रैल 2011

न दिखा ऐसे में पीरो पयम्बर से जलवे

Crying Ukrainian child, 

Michael Muzyczka

 St. Sofia School

उतर गया उफक से सूरज उफ उफ करते
उमसा दिन बीता बाँचते चीखते अक्षर
लिखूँ क्या इस शाम को नज़्म कोई
जो दे दिल को सुकूँ और समा को आराम
चलता रहेगा खुदी का खुदमुख्तार चक्कर
चढ़े कभी उतरे, अजीयत धिक चीख धिक।

कालिखों की राह में दौड़ते नूर के टुकड़े
बहसियाने रंग बिरंगे चमकते बुझते
उनके साथ हूँ जो रुके टिमटिमाते सुनते
चिल्ल पों में फुसफुसाते आगे सरकते
गोया कि हैं अभिशप्त पीछे छूटने को
इनका काम बस आह भरना औ' सरकना।

हकीकत है कि मैं भी घबराता हूँ
छूट जाने से फिर फिर डर जाता हूँ
करूँ क्या जो नाकाफी बस अच्छे काम
करूँ क्या जो दिखती है रंगों में कालिख
करूँ क्या जो लगते हैं फलसफे नालिश -
बुतों, बुतशिकन, साकार, निराकार से
करूँ क्या जो नज़र जाती है रह रह भीतर -
मसाइल हैं बाहरी और सुलहें अन्दरूनी
करूँ क्या जो ख्वाहिशें जुम्बिशें अग़लात।


करूँ क्या कि उनके पास हैं सजायें- 
उन ग़ुनाहों की जो न हुये, न किये गये 
करूँ क्या जो लिख जाते हैं इलजाम- 
इसके पहले कि आब-ए-चश्म सूखें 
करूँ क्या जो खोयें शब्द चीखें अर्थ अपना
मेरी जुबाँ से बस उनके कान तक जाने में? 
करूँ क्या कि आशिक बदल देते हैं रोजनामचा- 
भूलता जाता हूँ रोज मैं नाम अपना।

सोचता रह गया कि उट्ठे गुनाह आली
रंग चमके बहसें हुईं बजी ताली पर ताली
पकने लगे तन्दूर-ए-जश्न दिलों के मुर्ग
मुझे बदबू लगे उन्हें खुशबू हवाली
धुयें निकलते हैं सुनहरी चिमनियों से
फुँक रहे मसवरे, प्रार्थनायें और सदायें।

रोज एक उतरता है दूसरा चढ़ता है
जाने ये तख्त शैतानी है या खुदाई 
उनके पास है आतिश-ए-इक़बाली
उनके पास है तेज रफ्तार गाड़ी
अपने पास अबस अश्फाक का पानी
चिरकुट पोंछ्ने को राहों से कालिख
जानूँ नहीं न जानने कि जुस्तजू
वे जो हैं वे हैं ज़िन्दा या मुर्दा
ग़ुम हूँ कि मेरे दामन में छिपे कहीं भीतर
ढेरो सामान बुझाने को पोंछने को    
न दिखा ऐसे में पीरो पयम्बर से जलवे
सनम! फनाई को हैं काफी बस ग़म काफिराना।


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शब्दार्थ: 
उफक - क्षितिज; समा - समय; अजीयत - यंत्रणा; बुतशिकन - मूर्तिभंजक; अग़लात - ग़लतियाँ; आली - भव्य, सखी; इक़बाल - सौभाग्य; अबस - व्यर्थ; अश्फाक - कृपा, अनुग्रह; फनाई- विनाश, भक्त का परमात्मा में लीन होना 

  

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

बस यूँ ही बुद्धू बने रहना

वंचना जग की प्रवृत्ति,
घोर अनास्था पैठ रही। 

सच का है कड़वा स्वाद, तड़का तराशें और परोसें 
झूठ गली का सोंधा माल, चटकारे ले सभी भकोसें। 
किंशुक फूले, फूले गुलमोहर, छतनार हुई गाछों की डालें 
चक्र सनातन घूमे अविरत, कौन घड़ी हम बन्धन बाँधें? 

श्लथ छ्न्द अनुशासन, गण अगणित, टूटें क्षण क्षण। 
रह रह समेटना, गिरना,रह रह उठना।

नहीं, तुम्हारा प्रिय नहीं पराजित।
ढूँढ़ता है इस मौसम 
होठों पर खिलते हरसिंगार 
सरल अंत:पुर शृंगार 
भाषित सुगन्ध सदाचार
प्रेमिल वाणी निश्छल 
मौन सामने साँसें प्रगल्भ -  
"ऐसे ही रहना बुद्धू! 
मर कर होते विलीन 
सब भूत लीन  
नश्वरता संहार 
अन्याय अत्याचार 
सब सही। 
सोचो तो 
तुम कहाँ पाते ठाँव 
जो मैं न होती?
सोचो तो 
कौन करता आराधन 
इस भोली अनुरागिनी का 
जो तुम न होते?"  
- क्या यह बस मुग्ध प्रलाप?- 
"नहीं, यह है विस्मृति 
जिसे तुम कहते स्मृति।
भूले जीवन श्वेत श्याम 
द्वन्द्व प्राण का पहला नाम। 
देखो! मैं बिखरी अब ओर 
देखो! तुम बिखरे सब ओर  
टूटे क्षण नहीं, मुझे समेटो 
हरसिंगार हैं हर पल झरते
कुचल गये जो, निज को समेटो।
क्या समझाना? 
अब तो मैं हुई बड़ी 
क्या समझना? 
अब तो तुम हुये बड़े?
विस्मृति ही सही 
बस यूँ ही स्मृति में लाते रहना।
स्मृति ही सही 
बस यूँ ही बुद्धू बने रहना।"

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

कविता गल्प : ... न थकेंगी

पाँखें थमी हैं 
परी थकी है 
सेज लगी है
पलकें भरी हैं
आँखें नमी हैं 
सपन सजने आयेंगे? 
सजन सपने आयेंगे? 
सजन अपने आयेंगे?
सजन आयें, न आयें 
आँखें मुदेंगी
निंदिया आयेगी
सपन आयेंगे
आँखें नमेंगी
पलकें भरेंगी
बस, बस! 
पाँखें उड़ेंगी
न थकेंगी। 


बुधवार, 13 अप्रैल 2011

बेबहर नम लहर

न हिज़ाब पर यूँ अनख मेरे महबूब!
जतन से ओढ़ी है कि तेरी नज़र न लगे।
नज़र लग गई तो फिर उतरेगी नहीं 
लगी जो कभी वो कहाँ उतरी आज तक?
न कहो अब लगने लगाने को बचा कहाँ?  
हुई हैं खाली आँखें ढेर सा टपका कर। 
ये इश्कोमुहब्बत जैसे दिललगा सूरन 
लगे, न लगे और सवाद का पता ही नहीं। 
चलो धीरे, बुझती हैं आहट के झोंको से
हैं बत्तियाँ नाज़ुक तुम्हारी माशूक नहीं।
जो आँख फेरी है तो वैसे रह भी पाओगे?
ग़ुम सदा कान में और रुख पलट जायेगा। 
मेरी कुछ हरकतें जो हैं तुम्हें नापसन्द, 
सुना देना उन्हें सज़दे में, वो बुरा न मानेगा। 

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

ढाई आखर अब भी अधूरे हैं।

मैं - भर गया है मन का ड्राफ्ट कक्ष,
तुम - दो मीठे बोल तो फिर भी न बोले! 
अधरों की काँप - ढाई आखर अब भी अधूरे हैं। 


तुम - संगिनी की आँखों में झाँकते मुझे याद आओगे। 
मैं - उलटबासियाँ वास्तविक नहीं होतीं। 
दोनों चुप, मौन मुखर - विरोधाभासों में कुछ भी 'आभासी' नहीं होता। 


मैं - आज तुम्हारी साँसें अलग सी महकती हैं ।
तुम - आज देह पुष्पित योजनगन्धा, भर लेना साँस भर भर। 
दोनों चुप, आँखें अटकी एक साथ - झूमते निर्गन्ध पुष्पित सदाबहार पर।


तुम - तुम्हारे लिये रोटियाँ गढ़ने की मशीन नहीं होना मुझे! 
मैं - सारी बुनियादी बातें बस होती हैं, गढ़ना नहीं होता उन्हें। 
छलछल तुम - "बड़े छलिया हो!", मनबढ़ मैं - "यूँ ही नहीं पकते गेहूँ के खेत!"      
.... 
.... 

ढाई आखर अब भी अधूरे हैं। 

     

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

मघवा! तुम छोड़ो सिंहासन


धरा! घहर, लहर! न ठहर
पटक लहर, पटक कहर
लपक दामिनि दौड़े नभ
मघवा ** छोड़े अब सिंहासन।
कह दो न कोई दधीचि अब
देहदान के बीते युग
निपटेंगे वृत्र से स्वयं हम
मघवा! तुम छोड़ो सिंहासन।

भ्रष्ट तुम, तुम भ्रष्टभाव, सहना नहीं शाश्वत अभाव
गढ़ने को अब नूतन प्राण, देखो पिघले गन्धर्व पाँव
पौरुष ने छेड़ा राग काम, धरा विकल नव गर्भ भार
लेंगे नवसंतति पोस हम, 
मघवा! तुम छोड़ो सिंहासन

नवजीवन अन्धड़ ताप तप
फैली ज्योतिर्मय आब अब
निषिद्ध कराह, फुफकार अब
बुझी यज्ञ की आग अब
ढलका धूल में सोम सब
भूले अर्चन के मंत्र हम
अमर नहीं अब मर्त्य तुम
मघवा! तुम छोड़ो सिंहासन।
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** मघवा - इन्द्र, देवताओं का राजा 

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

असंगति - गधे ही कवि होते हैं


जैसा कि युगों से होता आया है,
अच्छे गधे अब भी पाये जाते हैं।
माफ कीजिये,
अच्छे आदमी गधे कहलाते हैं।
(अच्छाई और गधापन युगों युगों के साथी हैं।)
माफ कीजिये,
'बुरे' और 'गधे' पाये जाते हैं।
(बात जम नहीं रही, अगली पंक्ति पर चलते हैं।)

गधों की कुछ आदतों के बारे में लिखते हैं।
(आदतों और गधों में बहसियाना सम्बन्ध होते हैं)
उन्हीं गधों के बारे में जो
जब कि आसमान में सूरज को टाँग -
बुरे बेतहाशा भागते रहते हैं,
वे बस उछलते रहते हैं।

उनकी टाँगों के साथ
सम्भावनायें बँधी होती हैं। 
सम्भावनायें
खुद के बनाये बन्धनों के कारण
फलित नहीं हो पातीं
और उन्हें दुत्कारती रहती है।
उनकी दुत्कार का उत्तर
वे निजी 'विमर्श' से देते हैं।
बुरे उनके 'विमर्श' को
रेंकना कहते हैं
हँसते हैं
ठहर कर उनकी टाँगों को परखते हैं
बन्धन यथावत पा खुश होते हैं
और गधों की पीठ पर डन्डे जमा
हँसते हैं,
गधे और जोर से रेंकते हैं...
...यह क्रम तब से चला आ रहा है
जब इव ने आदम को सेव खिला कर
पटाया था।
और ईश्वर ने चुपके से दोनों के
दो दो भाग कर दिये थे -
बुरा आदम, बुरी इव
गधा आदम, गधी इव।
स्वर्ग से उसने दो नहीं
चार जन ठेले थे।
(अब तक की पंक्तियों में
बहुत सी असंगतियाँ हैं।
काव्य दोष, तर्क दोष
फलाना, ढिमकाना
ये दोष, वो दोष ... सब हैं
वैसे वह सम्भावना वाली बात -
सही है।
आप को अब तक लग जाना चाहिये कि
गधे ही कविता रचते हैं
कवि गधे होते हैं
और
गधे तो गधे ही होते हैं।)

गधे पढ़ते हैं
बुरे भी पढ़ते हैं
लेकिन
एक बुनियादी अंतर है -
बुरे आस्तिक होते हैं
इसलिये ईश्वरदत्त प्रवृत्तियों को
पढ़ाई से पैना करते हैं
और चलते बनते हैं।
उनकी किताबें
बनती हैं चूल्हों की आग
जिनसे बुझती है
पेट की आग
जो वास्तव में होती नहीं
- लगाई जाती है।
(सही कहे -
पेट की आग को
एक गधा ही नकार सकता है।)

गधे आस्तिक, नास्तिक
या कुछ नहीं भी हो सकते हैं।
(ईश्वर को कोई अंतर नहीं पड़ता।)
गधे पढ़ते हैं
कुछ पढ़ाई को ढोते हैं
कुछ किताबों को ढोते हैं
कुछ उससे दिमाग बोते हैं।
दिमाग पैदा करना
बहुत जहीनी काम होता है
दिमाग की कमी के कारण
दिमाग नहीं उपजता।
भूख लगती नहीं
आग जलती नहीं
बुझती नहीं -
और गधे धीर वीर योगी
सनातन जूझते हैं।
दिमाग नहीं तो दिमाग कैसे उपजे?
इस आदिम प्रश्नचिह्न के आगे
बस खड़े रह जाते हैं
और
बुरे कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं।
(जी हाँ, मामला जटिल है
और
गर आप कहा समझ नहीं पा रहे
तो यह तय है
कि
गधा विमर्श सही जा रहा है -
गधों की बातें - गधे..युप्प!..
कवि की जुबानी।)

घर के ईश्वर की सहमति पा
जब बुरे सूरज को उतार देते हैं -
आसमान से।
तब
गधे ध्यानस्थ होते हैं
कालजयी रचनाकर्म को
और
बुरे बस इंतजार करते हैं
उनकी किसी असमय रेंक का।
उनकी रेंक बुरों की मेधा की औषधि बनती है
शक्तिवर्धक बनती है
और रात ढलती रहती है।

जब सुबह होती है
और बुरे सूरज को टाँगने के श्रम
से लथपथ लाल होते रहते हैं,
गधे सामूहिक रेंकते हैं –
क्रांति हो गई!
हमने कर दिखाया
और फिर छा जाती है
उछलन।
गधे उछलते लगते हैं
बुरे सूरज के साये में भागने लगते हैं ...
धूल गुबार त्रस्त
धरती चुप देखती सहती रहती है।

जैसा कि पहले बताया
गधे ही कवि होते हैं
और कविता की रेंक के लिये
दुनिया का दो टुकड़ों में
-    स्पष्ट टुकडों में –
बँटा होना आवश्यक है – अच्छे और बुरे।
कुछ भी या तो अच्छा होता है
या बुरा
दोनों एक साथ नहीं हो सकते।  
अच्छाई और गधेपन में कोई अंतर नहीं
जिस दिन अंतर हो जायेगा
उस दिन कविता गुम हो जायेगी –
गधापन है
इसलिये कविता है।
दुनिया कायम है
कि कायम हैं गधे
कि कायम है कविता।
(यह आगत प्रलय की रेंक नहीं
एक कविता है।
असंगत दिखती है
जो कि इसकी गति है।
और
इसमें सूरज जैसी वाहियात चीज के लिये
कोई जगह नहीं।... 
... वैसे आप किस श्रेणी में आते हैं?)         

रविवार, 3 अप्रैल 2011

सुबह का झरना, हमेशा हँसने वाली औरतें



रचयिता - बशीर 'बद्र'


सुब्ह का झरना, हमेशा हँसने वाली औरतें
झुटपुटे की नद्दियाँ, ख़ामोश गहरी औरतें
मौतदिल कर देती हैं, ये सर्द मौसम का मिज़ाज
बर्फ़ के टीलों पे चढ़ती धूप-जैसी औरतें
सब्ज़, नारंगी, सुनहरी, खट्टी-मीठी लड़कियाँ
भारी ज़िस्मों वाली, टपके आम-जैसी औरतें
सड़कों, बाज़ारों, मकानों, दफ्तरों में रात-दिन
लाल-पीली, सब्ज़-नीली, जलती-बुझती औरतें
शह्र में एक बाग़ है और बाग़ में तालाब है
तैरती हैं उसमें सातों रंग वाली औरतें
सैकड़ों ऐसी दुकानें हैं, जहाँ मिल जायेंगी
धात की, पत्थर की, शीशे की, रबड़  की औरतें

मुंजमिद(1) हैं, बर्फ में कुछ आग के पैकर अभी 
मक़बरों की चादरें हैं, फूल-जैसी औरतें
उनके अन्दर पक रहा है वक्त का आतशफ़शाँ(2)
किन पहाड़ों को ढके हैं, बर्फ़-जैसी औरतें
आँसुओं की तरह तारे गिर रहे हैं अर्श से
रो रही हैं आसमानों-सी अकेली औरतें
ग़ौर से सूरज निकलते वक्त देखो आसमाँ
चूमती हैं किसका माथा उजली-लम्बी औरतें
फाख्ताएँ, तितलियाँ, मछली, गिलहरी, बिल्लियाँ
ज़िन्दगी में आयें अपनी कैसी-कैसी औरतें
सब्ज़ सोने के पहाड़ों पर क़तार अन्दर क़तार
सर से सर जोड़े खड़ी हैं लम्बी-लम्बी औरतें
इक ग़ज़ल में सैकड़ों अफ़साने, नज़्में और गीत 

इस सरापे में घुसी हैं कैसी-कैसी औरतें
वाक़ई दोनों बहुत मज़्लूम हैं, नक़्क़ाद
(3) और
माँ कहे जाने की हस्रत में सुलगती औरतें

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(1) जमे हुये 
(2) आग उगलने वाला, ज्वालामुखी
(3) आलोचक