जो दूसरों की हैं, कवितायें हैं। जो मेरी हैं, -वितायें हैं, '-' रिक्ति में 'स' लगे, 'क' लगे, कुछ और लगे या रिक्त ही रहे; चिन्ता नहीं। ... प्रवाह को शब्द भर दे देता हूँ।
शनिवार, 29 दिसंबर 2012
मंगलवार, 18 दिसंबर 2012
...प्रार्थना में।
ज्योतिहीन जब तनेगा वितान
और सो जायेंगी
ध्वनियाँ
अनंत समय के लिये;
मेरी अंगुलियाँ होंगी दशनेत्र
मेरी अंगुलियाँ होंगी दशनेत्र
मैं थाम लूँगा
तुम्हें तम में ढूँढ़ कर
और भर दूँगा
सप्तक त्वचा छूती वायु में-
मेरी देह तुम्हारी होगी।
मेरी देह तुम्हारी होगी।
जीवन की लय पा
लेगी अपनी स्वतंत्रता
मैं नहीं रह
जाऊँगा कारा भर और माँगूगा और
उस दिन मैं झुकूँगा -
प्रार्थना में।
उस दिन मैं झुकूँगा -
प्रार्थना में।
रविवार, 9 दिसंबर 2012
घर तो आने दो!
न दोष दो इन आँखों को
न गाल पसरी बेशर्म लाली को
है खास कुछ इस जगह में, हवाओं में भी कुछ जहर है।
आँखें होंगी पाक गाल होंगे सफेद फिर, घर तो आने दो!
है खास कुछ इस जगह में, हवाओं में भी कुछ जहर है।
आँखें होंगी पाक गाल होंगे सफेद फिर, घर तो आने दो!
सोमवार, 3 दिसंबर 2012
राग घरनी
नत ललाट पर बिखरी अलकें
प्राची में सिन्दूर लगे
प्राची में सिन्दूर लगे
नयन सरोवर पुरइन भँवरे
कपोल पराग छू छिड़क भगे
कपोल पराग छू छिड़क भगे
हाथों के अर्घ्य अमर
जूठे बासन धो गंगाजल
जूठे बासन धो गंगाजल
अन्न अग्नि आहुति सहेज
चूड़ियों ने कुछ सूक्त पढ़े।
चूड़ियों ने कुछ सूक्त पढ़े।
नेह समर्पण भावों का ज्यों
मिथकों के अम्बार गढ़े
मिथकों के अम्बार गढ़े
रुँधे गले कुछ कह न पाये
मौन शब्द आभार पढ़े
मौन शब्द आभार पढ़े
ओस सजी दूब फिसलती
आँखों में आराधन है
क्षितिज मिलन के नव्य मधुरआँखों में आराधन है
साँसों में ओंकार जगे।
________________
एक रंग यह भी:
भोजन छ्न्द
शुक्रवार, 30 नवंबर 2012
कहा सुनी
हर कोई कह रहा है,
कोई नहीं सुन रहा है।
बुधवार, 28 नवंबर 2012
जन्म, मृत्यु और आइस पाइस
जन्म:
गिन रहा हूँ आँखें मूँदे एक से सौ तक
सब छिप जायँ तो आँखें खुलें, गिनती बन्द हो।
गिन रहा हूँ आँखें मूँदे एक से सौ तक
सब छिप जायँ तो आँखें खुलें, गिनती बन्द हो।
मृत्यु:
मिल गया आइस पाइस खेल में आखिरी शाह भी
चोर ने राहत की साँस ली और खेल खत्म हुआ।
मिल गया आइस पाइस खेल में आखिरी शाह भी
चोर ने राहत की साँस ली और खेल खत्म हुआ।
शुक्रवार, 23 नवंबर 2012
स्त्री!
स्त्री!
गुफाओं से निकल
आखेट को तज
उस दिन जब पहली बार
लाठी को हल बना मैने जमीन जोती थी
और तुमने अपने रोमिल आँचल में
सहेजे बीज
बिछाये थे गिन गिन सीताओं में
प्रकृति का उलट पाठ था वह
उस दिन तुम्हारी आँखों में
विद्रोह पढ़ा था मैंने
आज भी सहम सहम जाता हूँ।
थी चाँदनी उस रात
थके थे हम दोनों खुले नभ की छाँव
भुनते अन्न, कन्द, मूल, गन्ध बीच
तुमने यूँ ही रखा प्रणय प्रस्ताव
और
मैं डरा पहली बार।
अचरज नहीं कि पहला छ्न्द गढ़ा
भोली चाहतों को वर्जनाओं में मढ़ा
की मर्यादा और सम्बन्धों की बातें पहली
बार
और पहली बार खिलखिलाहट सुनी
मानुषी खिल खिल
तारे छिपे और गहरे
तारे छिपे और गहरे
आग बुझी अचानक।
असमंजस में मैं
देवताओं को तोड़ लाया नभ से भूमि
पर
दिव्य बातें - ऋत की, सच की
और तुम बस खिलखिलाती रही
कहा देवों ने - माँ को नमन करो!
तुमने देखा सतिरस्कार
बन्द यह वमन करो
सृजन करो!
स्त्री!
मैंने तुम्हारी बात मानी
सृजन के नियम बनाये
(पहले होता ही न था जैसे!)
संहितायें गढ़ीं
चन्द्रकलाओं में नियम ढूँढ़े
गर्भ को पवित्र और अपवित्र दो
प्रकार दिये
और सबसे बाद प्रकट हुआ विराट ईश्वर परुष
और सबसे बाद प्रकट हुआ विराट ईश्वर परुष
प्रकृति की छाती पर सवार
दार्शनिक उत्तेजना में
और
तुम्हारी आँखों में दिखी सहम पहली बार।
तुम्हारी आँखों में दिखी सहम पहली बार।
ज्यों माँ की बात न मान बच्चे ने
उजाड़ दिया हो किसी चिड़िया का
घोसला
फोड़ दिया हो अंडा पहली बार -
तुमने आह भरी
मैं शापित हुआ पहली बार
प्रलय तक स्वयं को छलने के लिये।
शब्द छल
वाक्य छल
व्याकरण छल...
मैं गढ़ता गया छल छल छल
तुम रोती गयी छल छल छल
आज भी नहीं भूला हूँ मैं अपना
पहला अट्टहास - बल बल बल
देहि मे बलं माता!
आज भी मैं पढ़ने के प्रयास में हूँ
तुम्हारी आँखों की वह ऋचा
उतरी थी जो बल की माँग पर
मेरी दृष्टि टँगी है तीसरी आँख पर।
दो सीधी सादी आँखों की बातों को
मैं आज भी नहीं बाँच पाता हूँ।
आश्चर्य नहीं कि हर दोष का बीज
तुममें ही पाता हूँ।
तुममें ही पाता हूँ।
स्त्री!
मैं पुरुष, इस विश्व का विधाता
हूँ।
बुधवार, 21 नवंबर 2012
रविवार, 11 नवंबर 2012
बै मरदवा!
मैं सुन्दर हूँ
किसी का बेटा हूँ।
मैं अमर हूँ
अमृतमना से जुड़ा हूँ।
बोझ खिसकाने को
थोड़ा हाथ लगाने को
मुझे पहचान लेती हैं
अनचिन्ही आँखें -
मैं विश्वस्त हूँ,
मैं समर्थ हूँ।
उन्हें जब होती है
ज़रा सी भारी परेशानी
मुस्कुराती हैं ज़रा सी
परखते हुये मेरी पेशानी -
मैं मूर्त सहयोग हूँ
मैं समस्या का हल हूँ।
.
.
.
ऐसा बहुत कुछ लिखता
अगर मेरा मित्र न कहता
'बै मरदवा!
ईहो कहे वाली बाति हे?'
लज्जित हूँ अपनी खिसक पर कि
अब भी हैं यूँ ही सब कुछ अध्यानी ही करने वाले।
कन्धे उचका कर पल में भूलने वाले
अब भी हैं कहने वाले -
बै मरदवा!
किसी का बेटा हूँ।
मैं अमर हूँ
अमृतमना से जुड़ा हूँ।
बोझ खिसकाने को
थोड़ा हाथ लगाने को
मुझे पहचान लेती हैं
अनचिन्ही आँखें -
मैं विश्वस्त हूँ,
मैं समर्थ हूँ।
उन्हें जब होती है
ज़रा सी भारी परेशानी
मुस्कुराती हैं ज़रा सी
परखते हुये मेरी पेशानी -
मैं मूर्त सहयोग हूँ
मैं समस्या का हल हूँ।
.
.
.
ऐसा बहुत कुछ लिखता
अगर मेरा मित्र न कहता
'बै मरदवा!
ईहो कहे वाली बाति हे?'
लज्जित हूँ अपनी खिसक पर कि
अब भी हैं यूँ ही सब कुछ अध्यानी ही करने वाले।
कन्धे उचका कर पल में भूलने वाले
अब भी हैं कहने वाले -
बै मरदवा!
गुरुवार, 8 नवंबर 2012
नइहरवा हम का न भावे
प्रियतम का पुर, उसके आने की आहट, उससे मिलने की बेचैनी और मिलन का आह्लाद निर्गुण और सगुण संत कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। चाहे मीरा का 'सखी मोरी नींद नसानी' हो या 'कोइ कहियो रे प्रभु आवन की', कबीर का 'दुलहिनि गावहु मंगलाचार, हमरे घर आये राजा राम भर्तार' हो या 'नइहरवा हमका न भावे'; अनुभूतियों की गहन पवित्रता साधक, पाठक, गायक और स्रोता सबको दूसरे ही लोक में ले जाती है।
भोजपुरी क्षेत्र के कबीर का 'नइहरवा...' पछाँही और मालवी स्पर्श के कारण अनूठा है।
सुनिये इसे तीन स्वरों में - कुमार गन्धर्व, कैलाश खेर और नवोदित आदित्य राव। कुमार गन्धर्व से प्रेरणा पाते हैं कैलाश खेर और उनके स्वरों को ही आदित्य राव ने दुहराया है।
नइहरवा हम का न भावे, न भावे रे । साई कि नगरी परम अति सुन्दर, जहाँ कोई जाए ना आवे । सुनिये इसे तीन स्वरों में - कुमार गन्धर्व, कैलाश खेर और नवोदित आदित्य राव। कुमार गन्धर्व से प्रेरणा पाते हैं कैलाश खेर और उनके स्वरों को ही आदित्य राव ने दुहराया है।
चाँद सुरज जहाँ, पवन न पानी, कौ संदेस पहुँचावै ।
दरद यह साई को सुनावै … नइहरवा।
आगे चालौ पंथ नहीं सूझे, पीछे दोष लगावै ।
केहि बिधि ससुरे जाऊँ मोरी सजनी, बिरहा जोर जरावे ।
विषै रस नाच नचावे … नइहरवा।
बिन सतगुरु अपनों नहिं कोई, जो यह राह बतावे ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सपने में प्रीतम आवे ।
तपन यह जिया की बुझावे … नइहरवा।
कुमार गन्धर्व
कैलाश खेर
आदित्य राव
शब्दचिह्न :
आदित्य राव,
कबीर,
कुमार गन्धर्व,
कैलाश खेर,
निरगुन
सोमवार, 29 अक्तूबर 2012
गिनती
पर्व आया, चला गया
बच्चे आये, चले गये
हरसिंगार रह गया बाकी।
दुआर पर दो वृद्ध अकेले,
फिर से गिनने लगे हैं -
टूटती साँसें, पूजा के फूल।
शनिवार, 13 अक्तूबर 2012
तिक्की
पढ़ पाओगे मुझको अधूरा हूँ मैं?
धैर्य तुममें नहीं जल्दी मुझको नहीं।
अपनी बातों के आगे हूँ चुप मैं बहुत
चैन उनमें नहीं शब्द मुझमें नहीं।
तुम्हारी मुहब्बत सजदा हमारा
बस इबादत कहीं खुदाई कहीं।
बुधवार, 10 अक्तूबर 2012
देती है
धड़कनों में जान सुनाई देती है
आहट-ए-रैहान * सुनाई देती है।
मत बढ़ो आगे अब गलबहियों से
हुस्न सजी दुकान दिखाई देती है।
जुटने लगे कत्ल के सामान सब
लबों पर मुस्कान दिखाई देती है।
आजिजी आमद किनारे खुदकुशी
मौत कुछ परेशान दिखाई देती है।
बढ़ गये हैं शहर में काफिर बहुत
बढ़ गये हैं शहर में काफिर बहुत
हर तरफ अजान सुनाई देती है।
_____________
मंगलवार, 25 सितंबर 2012
शुक्रवार, 21 सितंबर 2012
इधर से कभी उधर से कभी।
हुये थे विदा इस शहर से कभी
उनकी गलियाँ पुकारें इधर से कभी उधर से कभी।
अटकी थीं सांसें बिछड़ने के बाद
अब छूटे हैं जानिब इधर से कभी उधर से कभी।
झुकी हैं दो नज़रें न रुकते हैं आँसू
टपकती हैं बूंदें इधर से कभी उधर से कभी!
सराहें तो कैसे कोई मूरत नहीं
खींच लेते हैं पल्लू इधर से कभी उधर से कभी।
बात कहने की नहीं समझने की है
जुबां अटके है रह रह इधर से कभी उधर से कभी।
उठते हैं कहकहे एक साथ गलों में
ठिठकते मुस्कुरा के उन पर कभी इन पर कभी।
यूं ही बढ़े हैं इशक़ की गली
भटकन जुड़े है इधर से कभी उधर से कभी।
~*~*~*~*~*~*~
(दिल्ली, जयपुर: 20/21-09-2012)
बुधवार, 12 सितंबर 2012
विद्रोही कविता
फरमाइश जब उठी मंच से
'एक विद्रोही कविता हो जाय!'
जेब से निकाल मुड़ा तुड़ा
पहला प्रेमपत्र बाँच दिया
भेजने का साहस भी
न जुटा पाया जिसके लिये।
'एक विद्रोही कविता हो जाय!'
जेब से निकाल मुड़ा तुड़ा
पहला प्रेमपत्र बाँच दिया
भेजने का साहस भी
न जुटा पाया जिसके लिये।
मंगलवार, 28 अगस्त 2012
नागार्जुन की तीन कवितायें
बादल को गिरते देखा है
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गय धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गय धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
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गुलाबी चूड़ियाँ
_____________
गुलाबी चूड़ियाँ
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!
~~~~~~~~~~~~~
फसल
एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढेर सारी नदियों के पानी का जादू:
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:
एक के नहीं,
दो के नहीं,
हज़ार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:
फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!
बुधवार, 15 अगस्त 2012
ई ह अजादी..जीये जीये हिन्दुस्तान
ऊ आजादी पवलें भइया
जिनकर नाव नँगरेस महान
भगई बाबा बाप हो गइलें
चाचा नामी नेहर सयान।
राजा बदलल परजा वइसे
जीये जीये हिन्दुस्तान
गदहा जनम एक के छूटल
पहिर गुलाबी बनल परधान।
लइका भटके दारू पीये
बाप पखंडी लगलें घाट
एक अकेल छौंड़ी हमरी
क द परजा लाट के ठाठ।
बिटिया रानी बड़ी सयानी
घोघ्घो खेले पानी छाड़
सीमा पर कटल जवानी
चचा निहारें नोबल ठाड़।
दुस्मन के मूड़ी दे गइलें
अम्मा छाती परजा असवार
एमरजेंसी फफेल्ला धइलस
फूट टूट लूट बड़वार।
अम्मा दुरगा कतल हो गइली
बेटवा कर कर करे करार
तोप तोप के घोंप घोटाला
पोप देस जोरू भरतार।
बेटवा सेना सांती पोसे
कटें हजारो लंका के तीर
फाटल धरती मूड़ अकासी
धन्न धन्न जय बंता बीर।
राजा के रजधानी वइसे
परदा पीछे रानी मुसमाति
मौनी बाबा ताज असमानी
घोटालन भाँति के भाँति।
राज बदलिहें परजा वइसे
जीये जीये हिन्दुस्तान
गदहा जनम एक के छूटी
अरबो खरबो हिन्दुस्तान।
अमर वैभव
शब्दचिह्न :
15 अगस्त,
ज़िहादी इस्लाम की काली करतूतें
बुधवार, 8 अगस्त 2012
सुरत हँसी, विरत हँसी
समय सूखी नदी सा
रहे केवल तट मना रे
दिन सहमा सहमा।
सीमाहीन शुष्क
जीवन रेत मचल उठी
फिसल न जाय!
पिघले तट सरि के
नदिया बह चली
तुम्हारी विरत हँसी।
***********
***********
चित्राभार: http://www.flickriver.com/photos/tags/noordhoekbeach/interesting/
शब्दचिह्न :
काम कविता,
काम रचना,
प्रेम कविता,
प्रेमकविता
रविवार, 15 जुलाई 2012
...हो ही नहीं पाता
गेरुये, धानी, पियरे सगरे बादलों को
नीले आकाश में टाँक दूँ चकतियों की तरह और
कहूँ कि कपड़ों से तुम्हारा रूप झाँकता है पूरनवासी के चन्दा सा
आभास देता सुगोल सुपुष्ट निर्दोष गोलाभ का
मगर हो नहीं पाता कि पाता हूँ बादल हटे तो चन्दा वैसे ही रहे
पर कपड़े हटें तो लरज उठती है तरलता मात के नीर सी
आँसू ले बड़े रूप थन हो किलक उठते हैं
नल पर नहाती माँ उभर आती है आँखों में माँगती तौलिया
एकदम सहज सी अनावृत्त जैसे बछरू के संग गइया
कैसे वे भाव उकेरूँ? हो ही नहीं पाता।
उफ्फ उमस दहके प्रांतर धरा पर गलबहियाँ लूह की
दहकी साँसें अठखेलियाँ उन्मत्त उड़ती धूल सी
ऐसे में तुम नहीं जगाती कुछ भी ऐसा उद्दाम काम
कि जिसे लपेट कर कर सकूँ नग्न अक्षरों को शब्दभेद।
दुपहर की नींद सोती तकिया गीली स्वेद सीली
नींद गहरी हाँफती आ भागती जगाती दिदिया भोली
दुपट्टे की गाँठ में अमरुद, आम, पपीते सबसे अच्छे गाँव के
चल उठ्ठ खा ले, नहीं देख लेगी माई देगी गालियाँ बहुत।
अब क्या बताऊँ कि तुम्हारे दहकते चेहरे को देख
मुझे लगता है कि खोल दोगी आँचल वैसे ही फल झड़ेंगे
मैं कैसे लिखूँ कि जाना ऐसी भंगिमा के मायने हो सकते हैं और
कुछ फिल्मों को देखने के बाद। मुझमें अब भी वैसा नहीं होता
मैं कैसे कहूँ? हो ही नहीं पाता।
पुहुप खिले छतनार लाल गाल नीलम छाँई कहीं कहीं
आँखों के काजल काले छागल भागते छोड़ धवरी मइया
और रूपक और उपमा गढूँ कि विधाता की गढ़न हो फीकी
मैं कहूँ कविता सुरसरि सी अद्भुत अघाई लगती नीकी
हो नहीं पाता कि ध्यान आते हैं गुलमेंहदी सरीखे पौधे
नहीं तुम फूल नहीं, उन गहमर फलगुच्छों सी अदबद
छूते ही जिन्हें फट पड़ें सृष्टि के नियम अनेक
हो बारिशें कारे लघुआरे छोटे छोटे बीजों की
धसते अनेक मेरी बाहु में, वक्ष में, उरु और पेट में
भेदते कपड़ों को जो छिपाये लाज समेटते नीच।
तुम्हें देख मेरे भीतर रोज एक स्त्री जन्म लेती है
मैं कैसे लिखूँ? हो ही नहीं पाता।
जानो कि इस न उकेर पाने में, न लिख पाने में, न कह पाने में
न हो पाने में, ये जान पाने में, समझ पाने में, इतना सा कह पाने में
वह सब कुछ हो पाता है, रहता है, रह जाता है हर पल
जो मुझे रख पाता है – एक पुरुष, पूर्ण पुरुष।
नहीं जानता कि तुममें कुछ हो पाता है या नहीं।
लेकिन इतना जानता हूँ कि तुम्हारे होने से मैं हूँ और मेरे होने से तुम।
मंगलवार, 3 जुलाई 2012
बादल रो!
बादल रो!
उद्धत यौवन आँच धरा, छुये पवन चल रही लू
सृजन भाव हिय में भरा, तप्त साँस ले रही भू।
बादल रो!
बीते युग बरस सरस के, वारि कामना रही शेष
दृग जल या मीठी झँकोर, नमी नहीं अब मीन मेख।
बादल रो!
उलझे राम मार्ग चयन में, रावण के शोध अभिषेक
अट्टहास हैं कंठ शुष्क, वारुणि वारि वृथा अतिरेक।
बादल रो!
उद्धत यौवन आँच धरा, छुये पवन चल रही लू
सृजन भाव हिय में भरा, तप्त साँस ले रही भू।
बादल रो!
बीते युग बरस सरस के, वारि कामना रही शेष
दृग जल या मीठी झँकोर, नमी नहीं अब मीन मेख।
बादल रो!
उलझे राम मार्ग चयन में, रावण के शोध अभिषेक
अट्टहास हैं कंठ शुष्क, वारुणि वारि वृथा अतिरेक।
बादल रो!
मंगलवार, 19 जून 2012
वो अफसाना कहते हैं...
बाँचते हैं जो खबर भड़काना कहते हैं
चुप रहते हैं वो समझाना कहते हैं
वजह ढूँढ़ते हैं सचाई की मेरी आँखों में
मुस्कुराते हैं फिर अफसाना कहते हैं।
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- The world is all that is the case.
- What is the case—a fact—is the existence of states of affairs.
- A logical picture of facts is a thought.
- A thought is a proposition with a sense.
- A proposition is a truth-function of elementary propositions.
- The general form of a truth-function is: . This is the general form of a proposition.
- What we cannot speak about we must pass over in silence
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