रविवार, 20 नवंबर 2011

लगती हो


आभार:
 http://www.123rf.com/photo_4644624_indian-girl-catching-her-sari-in-a-bending-posture.html


जो पूछी बताता हूँ
अपनी सुनाता हूँ-
अमराई की पछुआ में
नशा छाँव महुआ में
नमकीन तीते टिकोरे कीखटाई सी लगती हो।

लूह चले चाम पर
परखन नाम पर-
जो दीठ से देखी न जाय
जीभ से कही न जाय
अधकच्चे रसाल कीभावी मिठाई सी लगती हो।

कने कने घाम में
सँवराई सी शाम में-
भटकन न नाप सके
डरा नहीं पाप सके
छूने की चाह जगाती, लजाती ललाई सी लगती हो।
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छुट्टियों के दिन बीते
रह गये बखार रीते-
तड़पन जो ला न सकी
नेह लगन पा न सकी
सूने खलिहान लुटी, शहर की कमाई सी लगती हो। 

शनिवार, 12 नवंबर 2011

तुम इतने समीप आओगे.... बुद्धिनाथ मिश्र


तुम इतने समीप आओगे,
मैंने कभी नहीं सोचा था।

तुम यूँ आये पास कि जैसे, उतरे शशि जल भरे ताल में,
या फिर तीतर पाखी बादल, बरसे धरती पर अकाल में,
तुम घन बन कर छा जाओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था।
तुम इतने समीप आओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था॥

यह जो हरी दूब है, धरती से चिपके रहने की आदी,
मिली न इसके सपनों को भी, नभ में उड़ने की आज़ादी,
इसकी नींद उड़ा जाओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था।
तुम इतने समीप आओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था॥

जिसके लिये मयूर नाचता, जिसके लिये कूकता कोयल
वन वन फिरता रहा जनम भर, मन हिरना जिससे हो घायल
उसे बाँध तुम दुलराओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था।
तुम इतने समीप आओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था॥

मैंने कभी नहीं सोचा था, इतना मादक है जीवन भी
खिंच कर दूर तलक आये हैं, धन से ऋण भी, ऋण से धन भी
तुम साँसों में बस जाओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था।
तुम इतने समीप आओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था॥

सनातन अधूरेपन के साथ सृष्टि को जो पूर्णता मिली है उसे मैं बड़े चमत्कारों में से एक मानता हूँ। इसके साथ ही संतुलन और विरुद्धों के सह अस्तित्त्व भी जुड़े हैं। जुड़ाव का तार है – राग। आयु के बढ़ने के साथ जब कैशोर्य आता है तो तन और मन के रसायन मचल उठते हैं। किसी की दीठ, किसी की आहट, किसी का स्वर, किसी की छाया, किसी का नाम, उसकी छोटी सी चर्चा भर रोयें गनगना देने के लिये पर्याप्त होते हैं। मन प्रांतर में कभी कभी किसी का आगमन अचानक ही होता है तो कभी धीरे धीरे! अगर इस चाहना का विस्तार हो, उदात्तीकरण हो तो मिलन की व्याकुल प्रतीक्षा ‘दुलहिन गावहु हो मंगलाचार’ में प्रकट होती है और अगर बस अपने को मिटा देने पर उतर आये तो वह आत्मविश्वास फूटता है – जहाँ में कैश ज़िन्दा है तो लैला मर नहीं सकती। स्वनिर्मित सभ्यता और प्रगति के दंश को सहने की शक्ति अगर किसी से मिलेगी तो रागात्मकता के विस्तार से ही – मनुष्य के पास और कोई औषधि नहीं!

इस गीत में बुद्धिनाथ जी राग गायन कर रहे हैं। वह कुछ जब अनायास अयाचित सा आ पहुँचता है तो आश्चर्यमिश्रित सुख अँगड़ाइयाँ लेने लगता है। प्रेमचक्षुओं के खुलते ही शिव शिवा का लास्य नृत्य दिखने लगता है। बुद्धिनाथ जी बिम्बधर्मी कवि हैं। रात के सन्नाटे में कभी ताल में प्रतिबिम्बित प्रकाशपुंज पर वर्षा की झीनी बूँदों को पड़ते हुये निहारिये! मनसर में शशि का उतरना समझ में आ जायेगा। अकाल ग्रस्त धरती फट जाती है। बंजर लैंडस्केप वाकई तीतर पंख के विस्तार सा दिखता है। वही दृश्य नभ में बन जाय तो? आप्यायित होने का आश्चर्य भरा अनुभव – गीतकार ने उसे बखूबी रच दिया है।

राग मुक्त करता है। जन्म जन्म के जड़ संस्कार टूट जाते हैं। जड़ताग्रस्त आत्मा के लिये जमीन से चिपकी दूब से अच्छा प्रतीक क्या हो सकता है? यहाँ कल्पना की उड़ान दर्शनीय है। हरी दूब नभ में! अरे सूख जायेगी!  तो क्या हुआ? सपनों को उड़ने की स्वतंत्रता मिले तो नींद ही उड़ जाय – अब इस विरोधी प्यारी सी बात के आगे क्या कहूँ? उस किसी का सामीप्य होता ही ऐसा है।

मयूर का नृत्य और कोयल की कूक निज के भीतर ही रहने वाले ‘जिस’ की अभिव्यक्ति होते हैं, बिना कस्तूरी का उल्लेख किये केवल  हिरन के घायल हो वन वन भटकने की बात कह, गीतकार ने ‘उसे’ सनकार दिया है। किसी के सामीप्य में ‘वह’ बँधता है। उस मुग्ध भाव का चित्रण देखिये जो प्रेममग्न प्रेमिका को निरखते उपजता है। कुछ कुछ निराला के राम के ‘खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन’ जैसा। यहाँ नागर संस्कार नहीं, वनवासी सरल उदात्तता है जिसे हिरन का बिम्ब बखूबी बयाँ करता है।

धन और ऋण। धन न हो तो ऋण न हो और ऋण न हो तो धन न हो। प्रस्तुति के दौरान गीतकार महोदय गणित विज्ञान की बात करते हैं। मैं कहता हूँ कि यह मूलभूत ‘अर्थशास्त्र’ है J ‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो’ - अब ऐसी सम्पदा पाने पर ‘मद’ न हो तो लानत है सारे सद्गुणों पर! साँसों के सामीप्य की मादकता और दुर्गुण मद – मतमतांतर रहें अपनी जगह, यहाँ तो निहाल होना ही बनता है - जनम जनम की उधारी का हिसाब जो हो गया है!   
 विपरीतों का आकर्षण और फिर साँसों में बस जाना, इस प्रेम के घर की बात ही निराली है। इसी का विस्तार होने पर समूचा विश्व ही अपना हो उठता है। गोविन्द पधारते हैं - साँस साँस सिमरो गोबिन्द, मनिअंतर के चिन्द मिट जाते हैं। धन ऋण का यह खेल अनूठा है और अनूठा है यह गीत भी!  
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अब गीत सुनिये, स्वयं गीतकार के स्वर में: