मंगलवार, 25 सितंबर 2012

कभी हो मेरे यार...

कभी हो मेरे यार कि यूँ ही जान मिलें
बहते पत्तों सी रवानी फिर जुबान सिलें।  
तमाम जिल्दें हों साया हमारी खामोशी    
पलटें पन्नों की खड़खड़ बस अहान मिलें।
यूँ कहना तुम्हारा और सुनना हमारा
छुयें सूरज सौ सरवर कमल हजार खिलें
(छुये सूरज सरवर औ कमल जहान खिलें)।  

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

इधर से कभी उधर से कभी।


हुये थे विदा इस शहर से कभी
उनकी गलियाँ पुकारें इधर से कभी उधर से कभी।

अटकी थीं सांसें बिछड़ने के बाद
अब छूटे हैं जानिब इधर से कभी उधर से कभी।

झुकी हैं दो नज़रें न रुकते हैं आँसू
टपकती हैं बूंदें इधर से कभी उधर से कभी!

सराहें तो कैसे कोई मूरत नहीं
खींच लेते हैं पल्लू इधर से कभी उधर से कभी।

बात कहने की नहीं समझने की है
जुबां अटके है रह रह इधर से कभी उधर से कभी।

उठते हैं कहकहे एक साथ गलों में
ठिठकते मुस्कुरा के उन पर कभी इन पर कभी।

यूं ही बढ़े हैं इशक़ की गली
भटकन जुड़े है इधर से कभी उधर से कभी।
~*~*~*~*~*~*~
(दिल्ली, जयपुर: 20/21-09-2012)  

बुधवार, 12 सितंबर 2012

विद्रोही कविता

फरमाइश जब उठी मंच से 
'एक विद्रोही कविता हो जाय!'
 जेब से निकाल मुड़ा तुड़ा 
पहला प्रेमपत्र बाँच दिया 
भेजने का साहस भी 
न जुटा पाया जिसके लिये।