रविवार, 14 जून 2009

संशय निकष है...

संशय निकष है ऋत का भी ।

यह पंक्ति नरेश मेहता रचित 'संशय की एक रात' खंड काव्य में आई है। राम पूरी सेना लेकर लंका पहुँच चुके हैं और अगला दिन युद्ध के प्रारम्भ का दिन है। राम युद्ध के पहले की रात युद्ध की सार्थकता, उसके प्रयोजन, मानव सभ्यता के संकट जैसे प्रश्नों से जूझते हैं। यह रात उनके लिए यातना की रात साबित होती है।

निकष माने कसौटी। कसौटी पत्थर पर सोने की शुद्धता की जाँच होती है। वह सोना जो संसार की सबसे मूल्यवान धातु है, प्रतिदिन एक पत्थर पर कसी जाती है, परखी जाती है।

'ऋत' एक वैदिक अवधारणा है जो बहुत ही गूढ़ है। सरल शब्दों में कहें तो समूची सृष्टि जिस एक व्यवस्था के भीतर/द्वारा संचालित है, वह ऋत है। कविता का सन्देश यह है कि:

संशय करो, प्रश्न करो चाहे सामने 'ऋत' ही क्यों न हो।

ईश्वर की पूर्ववर्ती अवधारणा होते हुए भी ऋत की अवधारणा ईश्वर का अतिक्रमण करती है। ऋत के विराट स्वरूप से तुलना करें तो लगता है कि ईश्वर की 'खोज' एक पिछड़ा कदम है क्यों कि यह संशय और प्रश्न को नेपथ्य में डाल देता है।

सनातन विचारधारा ऋत संचालित थी। जीवन और सृष्टि के हर प्रश्न और हर समस्या को इस विराट के प्रकाश में ऋषियों ने समझा और उत्तर देने के प्रयास किए।

इस प्रयास की प्रक्रिया में सामने आता है - संशय । संशय से प्रश्न उठते हैं और उनके हल तलाशने की प्रक्रिया में समाधान के साथ ही उठते हैं - नए संशय । संशय से पुन: प्रश्न ...... प्रक्रिया चलती रहती है और चिंतन का विकास होता जाता है। जाने अजाने ऋत संचालित होने के कारण समूची भारतीय सोच में एक सूक्ष्म सा तारतम्य दिखता है। साथ ही यह इतनी सार्वकालिक होती जाती है कि आज की ज्वलंत समस्याओं जैसे पर्यावरण आदि से जुड़े प्रश्नों पर भी विचार इसके प्रकाश में हो पाता है।

बार बार अपनी विराट खोज 'ऋत' पर भी संशय कर के भारतीय सोच जहाँ एक ओर प्रगतिशील होती रही, वहीं मानव की मेधा के प्रति सहिष्णुता की भावना भी संघनित होती रही। संवाद की इस परम्परा के कारण वेदों में वृहस्पति की नास्तिकता जैसी सोच को भी स्थान मिला। ऋग्वेद के प्रसिद्ध नासदीय सूक्त की केन्द्रीय अवधारणा 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' से विकसित होती हुई यह संशय और खोज की परम्परा नेति नेति, उपनिषदों के प्रश्न उत्तर, बुद्ध के 'अत्त दीपो भव' , जैनियों के स्यादवाद और शंकर के वेदांती 'अहम ब्रह्मास्मि' तक आती है। किसी अंतिम से दिखते समाधान को भी संशय और प्रश्न की कसौटी पर कसने के उदाहरण हमारे महाकाव्यों में भी दिखते हैं राम पूरी सेना को उतार कर भी अंगद को दूत बना कर भेजते हैं तो कृष्ण शांतिदूत बन कर कौरवों के यहाँ जाते हैं और एकदम युद्ध प्रारम्भ होने के पहले युद्ध भूमि में भी गीता के प्रश्नोत्तर में भाग लेते हैं। बुद्ध हमें संशय और प्रश्न के लिए इस सीमा तक उकसाते हैं कि कहते हैं कि मेरी बात भी बिना प्रश्न किए न मानो। जैन धर्म अन्धे और हाथी के प्रसिद्ध उदाहरण द्वारा सत्य की पहचान को नया आयाम देता है।

सारांश यह है कि भक्ति आन्दोलन द्वारा ईश्वर के आगे सम्पूर्ण समर्पण के पहले भारतीय विचारधारा इतनी विकसित हो चुकी थी कि अगली तार्किक परिणति यही होनी थी। ऋत की विराट परिकल्पना पतित होकर ईश्वर की सर्व सुलभ समझ में प्रतिष्ठित हुई और उसके आगे सम्पूर्ण समर्पण ही एक मात्र राह दिखाई गई। जन के लिए यह आवश्यक था लेकिन इससे हानि यह हुई कि संशय और प्रश्न नेपथ्य में चले गए। इसके कारण धीरे धीरे एक असहिष्णु मानस विकसित हुआ। विभिन्न पंथों के कोलाहल में मूल मानव कल्याण के विमर्श खो गए। इस्लाम जैसे असहिष्णु, संकीर्ण, संशय तथा प्रश्न विरोधी और हिंसक पंथ के आगमन, विजय और विस्तार ने तो जैसे इस प्रक्रिया पर मुहर ही लगा दी। अकबर या दाराशिकोह वगैरह के दरबारी टाइप प्रयास कृत्रिम थे, इनमें कोई स्वाभाविकता नहीं थी, लिहाजा कट्टरता विजयिनी हुई।

आज संशय और ऋत की पुनर्प्रतिष्ठा की आवश्यकता है, जो बस मानव मेधा की सतत प्रगतिशील और विकसित होने की प्रवृत्ति को मान दे और उसका पोषण करे। बर्बर खिलाफती, तालिबानी,प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी सोच के विरुद्ध यह सोच निश्चय ही सफल होगी।

20 टिप्‍पणियां:

  1. आज संशय और ऋत की पुनर्प्रतिष्ठा की आवश्यकता है, .............अच्छा ख्याल है.

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  2. भक्ति आंदोलन के संबंध में डा. रामविलास शर्मा का भिन्न नजरिया है जो उन्होंने अपनी अनेक पुस्तकों में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि भक्ति आंदोलन एक सामाजिक क्रांति था जो उस युग की आवश्यकता बन गई थी। वह सामंतवाद को भारतीय मानस द्वारा दिया गया सबसे गंभीर चुनौती थी। सामंतवाद जांत-पांत, सवर्ण-अवर्ण, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, जन्म-पुनर्जन्म आदि ढकोसलों की मदद से लोगों पर अपनी सत्ता बनाए हुआ था। यह सामाजिक विकास में बाधक बनता जा रहा था। उस समय का समाज व्यापारी पूंजीवाद की ओर तेजी से बढ़ रहा था। दक्षिण के चोल-पांड्य-चेर राजा, और उत्तर भारत में अकबर आदि मुगल बड़े-बड़े व्यापारी भी थे। उनके कर्मचारी-गण, बेगमें, आदि भी व्यापार में हिस्सा लेते थे। व्यापार के लिए बड़े पैमाने पर वस्तुएं पैदा करने की आवश्यकता थी, जो बड़े-बड़े कारखानों में ही संभव था। पर सामंतवाद के चलते, और जांत-पांत के प्रतिबंधों के रहते, इस तरह के कारखाने स्थापित नहीं हो सकते थे। इसीलिए यह युग की आवश्यकता थी कि सामंतवाद और ब्राह्मणवाद (ये दोनों सिक्के दो बाजू ही थे) का विरोध जरूरी था। यही काम कबीर, तुलसी, रैदास, नानक आदि ने और उनसे पहले दक्षिण के आल्वार और नायनार संतों ने किया। उन्होंने सामंतवाद के खंभे - जातिवभेद, ईश्वरोपासना में सवर्णों का विशेषाधिकार, संस्कृत भाषा,और उपासना के कर्मकांडी तरीके - पर कुठाराघात किया। उन्होंने हिंदी आदि देशी भाषाओं में सरल संदेश रखा कि भगवान एक है और उनसे संस्कृत में बातचीत करने की जरूरत नहीं है, न ही उन्हें प्रसन्न करने के लिए महंगे अनुष्ठान करने की जरूरत है, न ही ब्राह्मणों के बिचौलिएपन की ही जरूरत है, हर मनुष्य भगवान के दरबार में सीधे अपने बल पर अपनी भाषा में फरियाद कर सकता है।

    इस तरह भक्ति आंदोलन का आध्यात्मिक पक्ष तो है ही, उसका सामाजिक पक्ष अधिक महत्वपूर्ण है और अधिक क्रांतिकारी भी। विश्व भर में कहीं भी सामंतवाद के विरोध में इस तरह का सरस, प्रबल और सफल प्रयास नहीं किया गया है।

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  3. चर्चा अच्छी लगी।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  4. @ बालसुब्रमण्यम

    मतलब डा. शर्मा की मानें तो भक्त कवि 'पूँजीवादी एजेण्ट' थे.
    बाप रे!

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  5. आपको पढ़ना अच्‍छा लगा। फिर आएंगे।

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  6. bahut hi umda hindi ka prayog kiya hai aapne..sach kahoon to samajhne me thodi dikkat aayee...par kul milaake bahut achhi lagee ye charcha

    www.pyasasajal.blogspot.com

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  7. गिरिजेश: पूंजीवाद को लेकर, और साम्यवाद को लेकर भी, लोगों की, और लगता है आपकी भी, समझ, अधकचरी है। पूंजीवाद, या साम्यवाद ही, कोई डर्टी वर्ड नहीं है, और वह पूर्णतः बुरी चीजें भी नहीं हैं।

    मार्क्सवादी चिंतन के अनुसार, ये सब मानव समाज के विकास की मंजिलें हैं, और इनमें बुरा या अच्छा कुछ भी नहीं है। पूंजीवादी की भी प्रगतिशील भूमिका होती है - सामंतवाद का खात्मा करना। सामंतवाद के खात्मे के बाद ही पूंजीवाद स्थापित हो सकता है। पूंजीवाद के स्थापित होते ही सामंतवादी मू्ल्य, धर्म, जाति आदि की अवधारणाएं पुरानी पड़ जाती है, और उनके स्थान आ जाते हैं, नेशन, जिसे डा. शर्मा ने जाति नाम दिया है, की अवधारण सामने आती है। यह एक प्रगतिशील बात है।

    इसलिए पूंजीवादी एजेंट होना सामंतवाद के ढांचे को ढहाने के परिप्रेक्ष्य में एक गौरवमय बात मानी जाएगी।

    भक्ति आंदोलन का यही महत्व है।

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  8. आयातित http://girijeshrao.wordpress.com
    June 15, 2009 at 19:52
    समय

    एक बढिया आलेख शुरूआत में।
    बढिया रवानी से शुरू हुआ था, पर अंत (द्वितिय अंतिम पैरा) में साधारण सा बल्कि कहूं तो प्रतिगामी सा हो गया।

    अंत के निष्कर्षों की निकष में ही संशय पैदा होता है।

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  9. Reply
    June 15, 2009 at 20:40
    गिरिजेश राव(http://girijeshrao.wordpress.com से आयातित

    आने और टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
    एक बेवाक टिप्पणी के लिए और धन्यवाद।

    प्रतिगामी यदि इसलिए कह रहे हैं कि ऋत के पतित होने से ईश्वर का विकास लिखा, तो मुझे बचाव में कुछ नहीं कहना है। आज संसार की ढेर सारी मानव समस्याओं की जड़ ईश्वर की वर्तमान अवधारणा ही है।

    यदि इसलिए कह रहे हैं कि इस्लाम के लिए बुरा लिखा, तो बचाव में बस यही कहना है कि बौद्धिक बहस से परे कुछ ऐसे नग्न सत्य होते हैं जिन्हें हमारे प्रमाण/बचाव् की आवश्यकता नहीं है, वे बस हैं। आज विश्व की विवादकारी समस्याओं पर नज़र डालें तो एक पक्ष चाहे जो हो अधिकांश में दूसरा पक्ष इस्लाम ही है। इस्लाम की शिक्षाएं ऐसी हैं कि सामान्य सा अनुयायी भी अगल बगल छोटे स्तर पर ही सही, आतंकित करता चलता है। सबसे बड़ी समस्या है इसका किसी भी परिवर्तन के विरुद्ध होना
    जिसे अल्लाताला की सहमति मिली हुई है….

    बहुत लम्बा हो जाएगा । बौद्धिक स्तर पर एक पूरे धर्म को बुरा कहना बुरा लगता है लेकिन क्या करें? ज्वलंत समस्याओं से आँख कैसे चुराएँ? कश्मीरी शरणार्थी, पाकिस्तान और बंगलादेश में अल्पसंख्यकों की दुर्दशा, असम ….. कितना गिनाएँ।

    संशय, प्रश्न और निकष आदि को इस्लाम क्या समझे और क्या माने ? उसके लिए तो मुहम्म्द अंतिम पैगम्बर और क़ुरान अंतिम वाणी जो मानो तो ठीक नहीं तो …

    लेकिन यहाँ आप संशय के लिए स्वतंत्र हैं और मेरे उपर विरोध प्रश्न दागने के लिए भी । संशय से प्रश्न उठते हैं और उनके हल तलाशने की प्रक्रिया में समाधान के साथ ही उठते हैं – नए संशय । संशय से पुन: प्रश्न …

    आशा है आप पुन: आएँगें और संशय करेंगे।

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  10. Reply
    June 16, 2009 at 00:26
    समय

    गिरजेश भाई,
    आपकी यह अदा बहुत भाती है, इसलिए भी कि इसका अभाव है।

    आपकी यह बात ही कि “ऋत की विराट परिकल्पना पतित होकर ईश्वर की सर्व सुलभ समझ में प्रतिष्ठित हुई और उसके आगे सम्पूर्ण समर्पण ही एक मात्र राह दिखाई गई। जन के लिए यह आवश्यक था लेकिन इससे हानि यह हुई कि संशय और प्रश्न नेपथ्य में चले गए। इसके कारण धीरे धीरे एक असहिष्णु मानस विकसित हुआ।” सभी कुछ कह देती है।

    यह प्रक्रिया पूरे विश्व में लगभग एक ही तरह से विकसित हुई, और जाहिर है इसके पीछे आत्मगत या मनोगत कारणों के बजाए शुद्ध भौतिक कारणों का अस्तित्व रहा है।
    आप यदि इसे व्यापकता दें तो आपकी यह अवधारणा सभी आदर्शवादी विचारधाराओं को, इस्लाम को भी अपने में समेट लेने की क़ूवत रखती है। अलग से कुछ कहने की प्रासंगिकता समय को महसूस नहीं हुई, इसलिए ही यह गरीब संशय में आ गया।

    भारतीय चिंतन परंपरा में भी दोनों धाराएं यानि संशय और विश्वास, समानान्तर रूप से चले हैं ना कि एक ही विकसित होती परंपरा में। जाहिर है कि इस विरोधी विचार्धाराओं में असहिष्णुता ही हो सकती थी, और इतिहास साक्षी है कि संशय की परंपरा का परिस्थितियों के अनुकूलन के कारण बलपूर्वक दमन कर दिया गया। बृहस्पतियों, न्याय-वैशैषिकों, चार्वाकों, सुश्रुतों, योगियों, बुद्धों, धर्मकीर्तियों आदि-आदि को समूल नष्ट कर दिया गया, उनकी संशयवादी विचारधारा को या तो खत्म कर दिया गया या आदर्शवादी मुलम्में में प्रक्षिप्त।

    भक्तिकाल तो बहुत बाद की चीज़ है। परंतु आपका इस पर यह कहना सही है कि इसी के बाद आम मानस में ईश्वर के आगे संपूर्ण समर्पण या ईश्वर की वर्तमान अवधारणा का बोलबाला हुआ।

    खैर, समय की चिंताएं ऐसे ही व्यापक परिप्रेक्ष्यों के संदर्भ में थी, और जाहिर है आपकी जुंबिश में भी ये ही शुमार हैं।

    आप इस पर खुद भी संशय में है, परंतु नग्न सत्यों और ज्वलंत समस्याओं के नाम पर बौद्धिक प्रगतिशीलता को तो दाव पर लगाना या स्थगित कर देना सही कदम नहीं हो सकता ना।

    आप ही के शब्दों में आज संशय और ऋत की पुनर्प्रतिष्ठा की आवश्यकता है, जो बस मानव मेधा की सतत प्रगतिशील और विकसित होने की प्रवृत्ति को मान दे और उसका पोषण करे। ना कि इनके खिलाफ़ संघर्ष में खुद बर्बर खिलाफती, तालिबानी,प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी तरीके अपनाने को विवश हो जाए।

    मुआफ़ी की गुंजाईश बनाए रखें।
    समय गिरजेश राव से तो परिचित था, पर इससे नहीं कि यहां आलसी के चिट्ठे पर आप स्वयं ही विराजमान हैं। इस चिट्ठे पर आपका नाम नहीं था, और वैसे भी हमारी दिलचस्पी के केन्द्र विचार और व्यवहार होने चाहिए, इसी गफ़लत में गुस्ताखी़ हुई।

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  11. @बालसुब्रमण्यम
    अन्ने ! कृतार्थ हुआ। इतनी 'सरलाई' से समझाने के लिए।
    वैसे आप खामखाँ गुस्सा हो गए ! भला हमने 'भक्तों' को बुरा कब कहा ? एजेण्ट कहा तो उसे तो आप भी अच्छा कह रहे हो ।;)
    अधकचरे नहीं हम तो पूरे कच्चे हैं।

    आर्य! एक साष्टांग अनुरोध है - अपने ब्लॉग पर 'राष्ट्र' यानि 'नेशन' पर कुछ लिखो न । संघियों ने 'राष्ट्र राष्ट्र' कह परेशान कर रखा है ।
    @ समय
    गुस्ताखी? क्या बात कर रहे हैं ! इतनी गम्भीर और सुलझी हुई टिप्पणी मिलती कहाँ है? हम धन्य हुए । आते रहें। मैं 'फिर से' सीख रहा हूँ और अपने को धो रहा हूँ । आप साबुन शैम्पू वगैरह मुहैया कराते रहें।

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  12. गिरिजेश जी ,
    मैं तो इस ज्ञान से अनभिज्ञ हूँ ...क्या कहूँ.....?
    हाँ आपकी सलाह पर गौर करुँगी ....!!

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  13. maanniya, pahli baar aapke lekhan ko padhne ka saubhagya prapt hua. yeh main teri peeth khujaoon jaisa nahin hai, aap kii chh post padhne ke baad atyant sukhad anubhooti hui

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  14. आप लिख ही नहीं रहें हैं, सशक्त लिख रहे हैं. आपकी हर पोस्ट नए जज्बे के साथ पाठकों का स्वागत कर रही है...यही क्रम बनायें रखें...बधाई !!
    ___________________________________
    "शब्द-शिखर" पर देखें- "सावन के बहाने कजरी के बोल"...और आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाएं !!

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  15. `samantvaad ko dhanae mein poonjivaad ka agent sahi baat hai lekin aaj k paripekshy mein poonji vaad ka agent ya samrajyvaad ka agent hona khatarnaak baat hai aaj samrajyvaadi shaktiyaan manav ko joke ki bhaanti chooos rahi hai aur manav samaj kuch kar nahi paa raha hai

    suman

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  16. आज संशय और ऋत की पुनर्प्रतिष्ठा की आवश्यकता है, जो बस मानव मेधा की सतत प्रगतिशील और विकसित होने की प्रवृत्ति को मान दे और उसका पोषण करे। बर्बर खिलाफती, तालिबानी,प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी सोच के विरुद्ध यह सोच निश्चय ही सफल होगी।

    Sach hai.

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