(1)
गए हाट गुलाल मोलन को
तोहें देखे, पुनि देखे लाली तोहार
हाथ पकड़ तोहे खींच लाए
रह गयो मोल अमोलन ही।
पलखत देख जो रगड़े गाल -
तुम वैसे ही लाल
रगड़ाय के लाल
लजाय के लाल
तोरी तिहरी लाली देख निहाल
हम हो गए लाल
लाल लाल -
बिन गुलाल के लाल।
(2)
काहे सखियन बीच मोहे बदनाम करो -
हम नाहिं तोरे तोहरी अँगिया के बन्ध
साँच कहो, बिन शरमाय कहो
देख के हमको जो ली उसाँस
अँगिया खुली सब बन्ध गयो -
आन मिलो कुंज गलिन
भिनसारे सँकारे साँझ अन्हारे
कर देब पूरन तोरे मनवा के आस
हौं खुलिहें अँगिया खुलिहें
सब खुलिहें
जब दुइ मन खिलिहें
खुलिहें।
(3)
मधु रात भली
बड़ि बात चली
जो जागे सगरी रैन,
रहे सोवत
बड़ी देर भई।
देख सभी मुसकाय हँसें
हड़बड़ जो दुआरे गए -
आरसि दिखाय चतुर हजाम
वदन कजरा दमके सेनुरा।
ठठाय हँसे पुनि देख के सब
हम पहने रहे सलवार
का तुम पहिरी हमरो पैजामा?
जो दूसरों की हैं, कवितायें हैं। जो मेरी हैं, -वितायें हैं, '-' रिक्ति में 'स' लगे, 'क' लगे, कुछ और लगे या रिक्त ही रहे; चिन्ता नहीं। ... प्रवाह को शब्द भर दे देता हूँ।
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शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010
फागुनी मुक्तक - का तुम पहिरी हमरो पैजामा ?
सोमवार, 22 फ़रवरी 2010
फागुन फागुन ......फागुन फागुन
(1)
फागुन ने चूमा
धरती को -
होठ सलवट
भरा रास रस।
भिनसारे पवन
पी गया चुपके से -
.. खुलने लगे
घरों के पिछ्ले द्वार ।
(2)
फागुन की सिहरन
छ्न्दबद्ध कर दूँ !
कैसे ?
क्षीण कटि -
गढ़न जो लचकी ..
कलम रुक गई।
(3)
तूलिका उठाई -
कागद कोरे
पूनम फेर दूँ।
अंगुलियाँ घूमीं
उतरी सद्यस्नाता -
बेबस फागुन के आगे।
(4)
फागुन उसाँस भरा
तुम्हारी गोलाइयों ने -
मैं दंग देखता रहा
और
मेरी नागरी कोहना गई ।
लिखूँगा कुछ दिन
अब बस रोमन में -
फागुन ने चूमा
धरती को -
होठ सलवट
भरा रास रस।
भिनसारे पवन
पी गया चुपके से -
.. खुलने लगे
घरों के पिछ्ले द्वार ।
(2)
फागुन की सिहरन
छ्न्दबद्ध कर दूँ !
कैसे ?
क्षीण कटि -
गढ़न जो लचकी ..
कलम रुक गई।
(3)
तूलिका उठाई -
कागद कोरे
पूनम फेर दूँ।
अंगुलियाँ घूमीं
उतरी सद्यस्नाता -
बेबस फागुन के आगे।
(4)
फागुन उसाँस भरा
तुम्हारी गोलाइयों ने -
मैं दंग देखता रहा
और
मेरी नागरी कोहना गई ।
लिखूँगा कुछ दिन
अब बस रोमन में -
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