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सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

फागुन फागुन ......फागुन फागुन

(1) 
फागुन ने चूमा
धरती को -
होठ सलवट 
भरा रास रस। 
भिनसारे पवन 
पी गया चुपके से -
.. खुलने लगे
घरों के पिछ्ले द्वार । 
(2) 
फागुन की सिहरन 
छ्न्दबद्ध कर दूँ !
कैसे ?
क्षीण कटि - 
गढ़न जो लचकी ..
कलम रुक गई।
(3) 
तूलिका उठाई - 
कागद कोरे
पूनम फेर दूँ।   
अंगुलियाँ घूमीं 
उतरी सद्यस्नाता -
बेबस फागुन के आगे। 
(4) 
फागुन उसाँस भरा 
तुम्हारी गोलाइयों ने -
मैं दंग देखता रहा
और 
मेरी नागरी कोहना गई ।
लिखूँगा कुछ दिन
अब बस रोमन में -