आज उपस्थित हूँ मैं गांधारी
सुनाने को वह अनलिखा शाप
जो रह गया लक्ष के अधूरे से,
जो रह गया सूतों के अनुष्टुभ से।
"हे कृष्ण, सुनो!
मैं देती हूँ अमरत्व
अश्वत्थामा को
तुम्हारे भावी अभिशाप से।
न जीता कोई अन्य इस जय में
भारत में, महाभारत में,
केवल एक विजेता - अश्वत्थामा
केवल एक पराजित - कृष्ण तुम।
भटकेगा वह तीन हजार वर्ष
मस्तक व्रण से पीव बहाता
तुम ईश्वर, कैसे हो सकता
व्यर्थ क्रोध तुम्हारा?
किंतु
तीन हजारवें के पश्चात
पहले विषुव में उसका घाव
भर जायेगा
समा जायेगा
वह नर नर
भावी में, आगामी में
कवियों के नवछंदों में -
अमर।
छीन तुम्हारे सुदर्शन को
वे बाँसुरी पकड़ायेंगे
भक्तिनें नाचेंगी धुन पर
भक्त कीर्तन गायेंगे।
सुनो कृष्ण हे!
इतना ही बस न होगा
तुम होगे गोपीरमण
पूनम की सब रातों में।
मेरा अश्वत्थामा
होगा सप्तर्षि एक
युग युग जीता सौगातों में।
होगी भविष्य की विवशता
ऋषि या नायक -
लोग उसे ही बतायेंगे।
तुम होगे केवल रासगीत भर -
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