हुये थे विदा इस शहर से कभी
उनकी गलियाँ पुकारें इधर से कभी उधर से कभी।
अटकी थीं सांसें बिछड़ने के बाद
अब छूटे हैं जानिब इधर से कभी उधर से कभी।
झुकी हैं दो नज़रें न रुकते हैं आँसू
टपकती हैं बूंदें इधर से कभी उधर से कभी!
सराहें तो कैसे कोई मूरत नहीं
खींच लेते हैं पल्लू इधर से कभी उधर से कभी।
बात कहने की नहीं समझने की है
जुबां अटके है रह रह इधर से कभी उधर से कभी।
उठते हैं कहकहे एक साथ गलों में
ठिठकते मुस्कुरा के उन पर कभी इन पर कभी।
यूं ही बढ़े हैं इशक़ की गली
भटकन जुड़े है इधर से कभी उधर से कभी।
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(दिल्ली, जयपुर: 20/21-09-2012)
**हुए थे।
जवाब देंहटाएंसुंदर!
नये लैपटॊप के लिए बधाई!
:) इधर से भी अभी.
हटाएंनिहार रहे हैं रचना की खूबसूरती
जवाब देंहटाएंआह वाह निकल रही है इधर से कभी उधर से कभी
भटकना हुआ था, लटकना हुआ था,
जवाब देंहटाएंइधर से कभी, उधर से कभी ।
ये जिंदगी के कारवां हैं
जवाब देंहटाएंकभी इधर और कभी उधर ||
अति सुन्दर कविता ,गिरजेश जी नए लैपटॉप की शुभकामनाये,आप हम सभी को मार्गदर्शन करते रहें -आजाद सिंह
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