हुआँ हुआँ मची है सरेह में,
कोई फसल कटी है सरेह में।
खुश किसान सभी खलिहान खुश,
सियारों की लगी है सरेह में।
फँसे मीन घिरा पानी खूब,
नई मेंड़ें बँधी हैं सरेह में।
ताले लटक गये गोदाम में,
अब चाभियाँ लगी हैं सरेह में।
घन घमण्ड बड़े बरजोर घिरे,
जो अर्थियाँ सजी हैं सरेह में।
सय्याद ले भागा अजाब सब,
पकड़ो पकड़ो मची है सरेह में।
नहीं गोपी कोई गेह में,
इक बाँसुरी बजी है सरेह में।
कमाल की रचना है! कुछ कहना आज बस में नहीं!!
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