मंगलवार, 28 अगस्त 2012

नागार्जुन की तीन कवितायें

बादल को गिरते देखा है

अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

कहाँ गय धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
_____________

गुलाबी चूड़ियाँ 


प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!



~~~~~~~~~~~~~

फसल

एक के नहीं
दो के नहीं,
ढेर सारी नदियों के पानी का जादू:
एक के नहीं
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:
एक के नहीं
दो के नहीं,
हज़ार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:
फसल क्‍या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!




___________________________

कविता आभार : कविता कोश 

बुधवार, 15 अगस्त 2012

ई ह अजादी..जीये जीये हिन्दुस्तान


ऊ आजादी पवलें भइया
जिनकर नाव नँगरेस महान 
भगई बाबा बाप हो गइलें 
चाचा नामी नेहर सयान। 

राजा बदलल परजा वइसे
जीये जीये हिन्दुस्तान 
गदहा जनम एक के छूटल 
पहिर गुलाबी बनल परधान।

लइका भटके दारू पीये 
बाप पखंडी लगलें घाट 
एक अकेल छौंड़ी हमरी
क द परजा लाट के ठाठ।

बिटिया रानी बड़ी सयानी 
घोघ्घो खेले पानी छाड़ 
सीमा पर कटल जवानी 
चचा निहारें नोबल ठाड़।

दुस्मन के मूड़ी दे गइलें
अम्मा छाती परजा असवार 
एमरजेंसी फफेल्ला धइलस
फूट टूट लूट बड़वार।

अम्मा दुरगा कतल हो गइली 
बेटवा कर कर करे करार
तोप तोप के घोंप घोटाला 
पोप देस जोरू भरतार। 

बेटवा सेना सांती पोसे 
कटें हजारो लंका के तीर 
फाटल धरती मूड़ अकासी 
धन्न धन्न जय बंता बीर।

राजा के रजधानी वइसे 
परदा पीछे रानी मुसमाति 
मौनी बाबा ताज असमानी 
घोटालन भाँति के भाँति। 

राज बदलिहें परजा वइसे
जीये जीये हिन्दुस्तान 
गदहा जनम एक के छूटी  
अरबो खरबो हिन्दुस्तान।

अमर वैभव



तेरा वैभव अमर रहे ऐ माँ !
'ये दिन चार' रहें न रहें। 

बुधवार, 8 अगस्त 2012

सुरत हँसी, विरत हँसी

उमसा उमसा 
समय सूखी नदी सा
रहे केवल तट मना रे
दिन सहमा सहमा। 
दो किनारे 
सीमाहीन शुष्क 
जीवन रेत मचल उठी 
फिसल न जाय! 
आतप श्वास लिप्त तप्त 
रेत धधक उठी 
मकई दानों की लड़ी झड़ी 
तुम्हारी सुरत हँसी।
भूख सोंधी सजल तृप्त 
पिघले तट सरि के
नदिया बह चली 
तुम्हारी विरत हँसी। 
***********

चित्राभार: http://www.flickriver.com/photos/tags/noordhoekbeach/interesting/