रविवार, 15 जुलाई 2012

...हो ही नहीं पाता


गेरुये, धानी, पियरे सगरे बादलों को
नीले आकाश में टाँक दूँ चकतियों की तरह और
कहूँ कि कपड़ों से तुम्हारा रूप झाँकता है पूरनवासी के चन्दा सा
आभास देता सुगोल सुपुष्ट निर्दोष गोलाभ का
मगर हो नहीं पाता कि पाता हूँ बादल हटे तो चन्दा वैसे ही रहे
पर कपड़े हटें तो लरज उठती है तरलता मात के नीर सी
आँसू ले बड़े रूप थन हो किलक उठते हैं
नल पर नहाती माँ उभर आती है आँखों में माँगती तौलिया
एकदम सहज सी अनावृत्त जैसे बछरू के संग गइया
कैसे वे भाव उकेरूँ? हो ही नहीं पाता।

उफ्फ उमस दहके प्रांतर धरा पर गलबहियाँ लूह की
दहकी साँसें अठखेलियाँ उन्मत्त उड़ती धूल सी
ऐसे में तुम नहीं जगाती कुछ भी ऐसा उद्दाम काम
कि जिसे लपेट कर कर सकूँ नग्न अक्षरों को शब्दभेद।
दुपहर की नींद सोती तकिया गीली स्वेद सीली
नींद गहरी हाँफती आ भागती जगाती दिदिया भोली
दुपट्टे की गाँठ में अमरुद, आम, पपीते सबसे अच्छे गाँव के
चल उठ्ठ खा ले, नहीं देख लेगी माई देगी गालियाँ बहुत।
अब क्या बताऊँ कि तुम्हारे दहकते चेहरे को देख
मुझे लगता है कि खोल दोगी आँचल वैसे ही फल झड़ेंगे
मैं कैसे लिखूँ कि जाना ऐसी भंगिमा के मायने हो सकते हैं और
कुछ फिल्मों को देखने के बाद। मुझमें अब भी वैसा नहीं होता
मैं कैसे कहूँ? हो ही नहीं पाता।

पुहुप खिले छतनार लाल गाल नीलम छाँई कहीं कहीं
आँखों के काजल काले छागल भागते छोड़ धवरी मइया
और रूपक और उपमा गढूँ कि विधाता की गढ़न हो फीकी
मैं कहूँ कविता सुरसरि सी अद्भुत अघाई लगती नीकी
हो नहीं पाता कि ध्यान आते हैं गुलमेंहदी सरीखे पौधे
नहीं तुम फूल नहीं, उन गहमर फलगुच्छों सी अदबद
छूते ही जिन्हें फट पड़ें सृष्टि के नियम अनेक
हो बारिशें कारे लघुआरे छोटे छोटे बीजों की
धसते अनेक मेरी बाहु में, वक्ष में, उरु और पेट में
भेदते कपड़ों को जो छिपाये लाज समेटते नीच।
तुम्हें देख मेरे भीतर रोज एक स्त्री जन्म लेती है
मैं कैसे लिखूँ? हो ही नहीं पाता।

जानो कि इस न उकेर पाने में, न लिख पाने में, न कह पाने में
न हो पाने में, ये जान पाने में, समझ पाने में, इतना सा कह पाने में      
वह सब कुछ हो पाता है, रहता है, रह जाता है हर पल
जो मुझे रख पाता है – एक पुरुष, पूर्ण पुरुष।
नहीं जानता कि तुममें कुछ हो पाता है या नहीं।
लेकिन इतना जानता हूँ कि तुम्हारे होने से मैं हूँ और मेरे होने से तुम।        

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

बादल रो!

बादल रो!
उद्धत यौवन आँच धरा, छुये पवन चल रही लू
सृजन भाव हिय में भरा, तप्त साँस ले रही भू।

बादल रो!
बीते युग बरस सरस के, वारि कामना रही शेष
दृग जल या मीठी झँकोर, नमी नहीं अब मीन मेख।

बादल रो!
उलझे राम मार्ग चयन में, रावण के शोध अभिषेक
अट्टहास हैं कंठ शुष्क, वारुणि वारि वृथा अतिरेक।

बादल रो!