बादल रो!
उद्धत यौवन आँच धरा, छुये पवन चल रही लू
सृजन भाव हिय में भरा, तप्त साँस ले रही भू।
बादल रो!
बीते युग बरस सरस के, वारि कामना रही शेष
दृग जल या मीठी झँकोर, नमी नहीं अब मीन मेख।
बादल रो!
उलझे राम मार्ग चयन में, रावण के शोध अभिषेक
अट्टहास हैं कंठ शुष्क, वारुणि वारि वृथा अतिरेक।
बादल रो!
उद्धत यौवन आँच धरा, छुये पवन चल रही लू
सृजन भाव हिय में भरा, तप्त साँस ले रही भू।
बादल रो!
बीते युग बरस सरस के, वारि कामना रही शेष
दृग जल या मीठी झँकोर, नमी नहीं अब मीन मेख।
बादल रो!
उलझे राम मार्ग चयन में, रावण के शोध अभिषेक
अट्टहास हैं कंठ शुष्क, वारुणि वारि वृथा अतिरेक।
बादल रो!
बादल रो!
जवाब देंहटाएंअबतक तू बरसा करता था, जब जग यूँ तरसा करता था
अब देखो कवि रोष भरा, जाकर पुनि - पुनि पग धो ।
बरबस बरस सरस आतप हर, परस हरष सबजन के मुखपर
है दग्ध धरा पर व्यग्र कृषक कैसे पाये कुछ बो, बादल रो।
बरसो, चाहे आँसू बरसो..
जवाब देंहटाएंवाह....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.....
अनु
बादलों ने सुन लिया, हहर पड़े आचार्य!
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