पढ़ते हुये झुरझुरी होती है?
कोमलता कुम्हलाने लगती है??
...
सोचो कि लिखते हुये मैंने,
तोड़ी होंगी कितनी बेड़ियाँ
चढ़े होंगे कितने साहस सोपान
उस बिंदु तक जिसके आगे
आत्माहुति होती है कि जीना
यही है मित्र! न पार करता कोई
विश्वामित्र जो सिंधु कोई मधुच्छंद
रथों की दुर्धर्ष गति जलराशि से
रुकती, डूबते अश्व थल गुंजाल में
स्फीत वक्ष पेशियाँ वल्गाम स्नायु
तंतु तने कि मैंने रचे जीवनसूत्र
नये नवोन्मेष का रथी सारथी मैं
मैं हूँ महाक्षत्रिय जिसके रक्त में
जेजाकभुक्ति बलि शृंगार वृष
वासना जिसकी करती बातें
खिलखिलाती नदियों के तीर से
भेदती जिसकी दृष्टि क्षितिज को
पार कर उतार लाती संझाओं में
संझा भाखा सविता शिवनाथ
मैं भरत हूँ अग्नि सूर्य वरुण मित्र
सोम मैं आहुति मेरी पीते देव दे
पितरों को चषक नवसंस्कार को
तकती है भूमा मेरी दीठ को भेद
समुद्र के अतल तल भण्डार से
ला रत्न मैं मढ़ता हूँ मेदिनी कि
घूमें मेरे अश्व लिये मेध मैध्य देह
मेधा रचे नये आवर्त चक्र ऋत
बंध को विस्तार को निर्माण को
सोचो कि कितने ध्वंस होंगे पड़े
एक इस अस्तित्त्व में जानो कि
निर्भय नवोन्मेष का चक्रवर्ती
मैं क्षत्रिय अप्रतिहत रुद्र की
कोमलता कुम्हलाने लगती है??
...
सोचो कि लिखते हुये मैंने,
तोड़ी होंगी कितनी बेड़ियाँ
चढ़े होंगे कितने साहस सोपान
उस बिंदु तक जिसके आगे
आत्माहुति होती है कि जीना
यही है मित्र! न पार करता कोई
विश्वामित्र जो सिंधु कोई मधुच्छंद
रथों की दुर्धर्ष गति जलराशि से
रुकती, डूबते अश्व थल गुंजाल में
स्फीत वक्ष पेशियाँ वल्गाम स्नायु
तंतु तने कि मैंने रचे जीवनसूत्र
नये नवोन्मेष का रथी सारथी मैं
मैं हूँ महाक्षत्रिय जिसके रक्त में
जेजाकभुक्ति बलि शृंगार वृष
वासना जिसकी करती बातें
खिलखिलाती नदियों के तीर से
भेदती जिसकी दृष्टि क्षितिज को
पार कर उतार लाती संझाओं में
संझा भाखा सविता शिवनाथ
मैं भरत हूँ अग्नि सूर्य वरुण मित्र
सोम मैं आहुति मेरी पीते देव दे
पितरों को चषक नवसंस्कार को
तकती है भूमा मेरी दीठ को भेद
समुद्र के अतल तल भण्डार से
ला रत्न मैं मढ़ता हूँ मेदिनी कि
घूमें मेरे अश्व लिये मेध मैध्य देह
मेधा रचे नये आवर्त चक्र ऋत
बंध को विस्तार को निर्माण को
सोचो कि कितने ध्वंस होंगे पड़े
एक इस अस्तित्त्व में जानो कि
निर्भय नवोन्मेष का चक्रवर्ती
मैं क्षत्रिय अप्रतिहत रुद्र की
निचोड़ जटायें उतार लाता जो
गङ्गा पृथ्वी करने को उर्वरा
रोता नहीं भस्म को देख जो
तप्त कर सान चढ़ता है स्वयं
हिम शीतल मृत्यु की गोद में
सोचो कि लिखते हुये मैंने,
तोड़ी होंगी कितनी बेड़ियाँ
चढ़े होंगे कितने साहस सोपान
उस बिंदु तक जिसके आगे
आत्माहुति ही होती है जीना।
गङ्गा पृथ्वी करने को उर्वरा
रोता नहीं भस्म को देख जो
तप्त कर सान चढ़ता है स्वयं
हिम शीतल मृत्यु की गोद में
सोचो कि लिखते हुये मैंने,
तोड़ी होंगी कितनी बेड़ियाँ
चढ़े होंगे कितने साहस सोपान
उस बिंदु तक जिसके आगे
आत्माहुति ही होती है जीना।