समर्थक अन्याय :
(1) तुलसीदास अवतारी पुरुष थे.
(2) उनकी रामचरित मानस विश्व की सर्वश्रेष्ठ “दर्शन कृति” है.
विरोधी अन्याय :
(1) तुलसीदास नारी और शूद्र विरोधी तथा उच्च जातियों की प्रतिष्ठा करने वाले पोंगापंथी ब्राह्मण थे.
(2) वे हिन्दू समाज के पथ भ्रष्टक थे.रामचरित मानस पुराने संस्कृत ग्रंथों के भौंड़े अनुवाद के सिवा कुछ नहीं.
आचार्य रजनीश ने कहा है कि महापुरुष मृत्यु से नहीं मरता, वह उस दिन मरता है जिस दिन उसे ऐश्वर्य की प्रतिष्ठा दे दी जाती है. इसी बात को आगे बढाएँ तो किसी भी कृति का अनावश्यक और अनुचित महिमामण्डन उसे शववस्त्र पहनाने जैसा है. तुलसी एक असाधारण महापुरुष थे और मनुष्य ही थे कुछ और नहीं. रामचरित मानस उन्हीं के शब्दों में स्वांत: सुखाय लिखी गई जो ऐतिहासिक कारणों, केन्द्रीय चरित्र की उदात्तता, पारदर्शिता, सरलता और ईमानदारी के कारण जन जन के कण्ठ का हार और मन की मिठास बन गई.
नारी और शूद्र विरोधी कथन या तो खल पात्रों के हैं या विपरीत परिस्थितियों में कहे गए हैं. तत्कालीन समाज का आइना होने के साथ साथ ये वचन तुलसी के अपने पूर्वग्रह भी दर्शाते हैं. इनसे तुलसी खलनायक नहीं , हमारे आप के बीच के मनुष्य बन कर सामने आते हैं. उस समय के माहौल में न तो 'क्रांति' हो सकती थी और न ही 'सत्ता परिवर्तन के लिए लोकतंत्रात्मक चुनाव'. तुलसी ही नहीं समस्त भक्तिमार्गी संतों ने जनता को निराशा की भटकन के बीच पथ दिए उन्हें पथ भ्रष्ट नहीं किया. ड्राइंग रूम में बैठ कर फतवा देना और बात है और फील्ड में काम करना और. उस समय के संत फील्ड वर्कर्स थे. रही बात अनुवाद की तो ‘नाना पुराण निगमागम’ लिख कर तुलसी ने ईमानदारी पूर्वक स्वीकार किया है. आधुनिक लाइब्रेरियों से नकल कर लिखी गई कितनी ही थिसिसें धूल चाटती हैं. क्या उनका वही प्रभाव है?
अस्तु ....
अपने समकालीन संतो में तुलसी सर्वाधिक पारदर्शी हैं. उनकी महानता उनकी जन-उन्मुखता में है. थोड़ी सी बारीकी से देखें तो उन्हों ने जन की प्रतिष्ठा ही की है चाहे उसके लिए ईश्वर को भी नीची पायदान पर क्यों न रखना पड़े. रामचरित मानस की पंक्ति ‘चंदन तरु हरि संत समीरा’ इसकी प्रमाण है. ईश्वर चन्दन का पेंड़ है तो संत मन्द बहती वायु है. सुगन्धि लेना है तो पेंड़ के पास जाना पड़ेगा किंतु संत समीर तो अपने झँकोरों से उस सुगन्धि को अयाचित ही घर घर के द्वार पहुँचा देता है. प्रतिष्ठा महती किसकी हुई?
आप ने एक कहावत सुनी होगी ‘पराधीन सुख सपनेहु नाहीं’. पता नहीं उस तथा कथित नारीनिन्दक ने इसे गढ़ा था और अपनी अभिव्यक्ति की सरलता और सान्द्रता के कारण यह जन जन की ज़ुबान पर ऐसी चढ़ी कि आज तक नहीं उतरी !
या
पहले से ही प्रचलित एक कहावत को नकलची तुलसी ने एक नया संस्कार दिया.
चाहे जो हो कवि तुलसी की संवेदना और जन की आधी आबादी के प्रति करुणा इन दो पँक्तियों में ऐसी छलकती है कि आँखें बरबस ही नम हो जाती हैं:
माता उमा को समझा रही हैं ,’’पता नहीं क्यों विधाता ने नारी को गढ़ा, ...पराधीन ही ज़िन्दगी बीत जाती है और सुख सपने में भी नहीं मिलता.”
’कत बिधि स्रजी नारि जग माँही, पराधीन सुख सपनेहु नाहीँ’.
पुरुष वर्चस्व के घनघोर काल में (त्रेता युग हो या हरम संस्कृति वाला कलियुगी मध्यकाल) माँ और बेटी के इस सख्य भाव में न जाने कितने संदेश छिपे हैं. तुलसी की जन चेतना का यह दूसरा पक्ष है.
आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी की मानें तो बेरोज़गारी पर पहली कविता हिन्दी में तुलसी ने लिखी. आप चौंकिए नहीं तुलसीदास की जन चेतना का यह एक और पक्ष है. जरा सोचिए दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा के मुग़लिया ज़माने में मेले की भरी भीड़ में अकबर के कुशासन और जनता की दुर्दशा पर कवित्त पढ़ने का साहस कौन करेगा? वही न जिसे जनता से इतना लगाव हो कि वह केवल दण्ड और भेद वाली राजसत्ता के आक्रोश को छिंगुरी पर रखता हो. प्रतिभा इतनी की चार पंक्तियों में ही समाज के हर वर्ग की दुर्दशा और उनका हाहाकार दोनों बयान कर दिए. परखिए इस कवित्त को:
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि, बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस कहैं एक एकन सों कहॉ जाई का करी।
बेदहूँ पुरान कही लोकहूँ बिलोकिअत साँकरे सबै पै राम रावरे कृपा करी।
दारिद दसानन दबाई दुनी दीनबन्धु दुरित दहन देखि तुलसी हहाकरी।
सीद्यमान संस्कृत शब्द है जिसका देसज रूप “सीझना” है. चावल आँच पर रख कर धीमे धीमे पकाया जाता है, उसका पकना सीझना कहलाता है. ठीक वैसे ही जनता कुशासन के दौर में धीरे धीरे सीझ रही है, सूख रही है. कहीं राह नहीं! जाएँ तो जाएं कहाँ? दरिद्रता इतनी है कि भिखारी को भीख तक नहीं मिलती. रावण कौन है? अरे यह दरिद्रता ही रावण है! तुलसी हाहाकार करता है प्रभु कुछ करो. वेदों पुराणों की क्या कहूं लोक प्रमाण हैं संकट में प्रभु तुमने सब पर कृपा की है. कुछ करो...अपनी एक दूसरी रचना में उन्हों ने भूख से त्रस्त माता पिता द्वारा संतानों को बेंचने का भी चित्रण किया है 'पेट ही को पचत बेचत बेटा बेटकी'.
कितने पोंगापंथी ब्राह्मणों में पाई जाती हैं ऐसी सान्द्रता, अनुभूति की गहनता और ऐसा साहस !
दरबारी चाटुकारों की भीड़ जुटाने के शौकीन अकबर ने जब तुलसी के पास 5000 की मनसब दारी का प्रस्ताव भेजा तो उस राम के ग़ुलाम लोकवादी कवि ने टका सा ज़वाब दे दिया:
‘हम चाकर रघुबीर के पटो लिखो दरबार
तुलसी अब का होइहें नर के मनसबदार’
आखिर ‘राम ते अधिक राम कर दासा’ . दास जन है. जन का यह रूप तो राम से भी महान है.
आज के कितने काव्य मठाधीश ऐसे प्रलोभनों को ठुकरा पाते हैं?
उनके समय में जब काशी में प्लेग़ (तत्कालीन संदर्भ - रुद्र की बीसी) की महामारी फैली तो राजसता ने क्या किया यह तो अज्ञात है लेकिन काशी आज भी इस गोसाईं के आखाड़ा आयोजन को याद करती है. युवकों द्वारा रोगियों के उपचार और सफाई एवँ मृतकों के दाह संस्कार की व्यवस्था तुलसी ने की. जन सेवा का कैसा उन्माद था! इसे आप तब समझेंगें जब यह जानेंगें ब्रिटिश काल तक प्लेग के समय परिवारों द्वारा रोगी को घर में अकेले छोड़ कर पलायन कर जाने के रिकॉर्ड मिलते हैं. इतने महान अभियान के प्रेरणा पुरुष का व्यक्तित्त्व कैसा रहा होगा !
तुलसी कुछ समय तक किसी मठ के मुखिया गोस्वामी भी रहे लेकिन बहुत शीघ्र सब छोड़ दिए वापस ‘तीन गाँठ कौपीन‘ की संपदा में जीवन बिताने के लिए. गोंसाइपने का पछतावा इतना सताता रहा कि किसी और बहाने से रामचरित मानस तक में लिख बैठे ‘सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईँ॥‘
अगली बार जब आप अखण्ड रामायण पारायण का आयोजन लाउड स्पीकरों द्वारा पड़ोसियों की नींद हराम करने और उन्हें भक्ति के आडम्बर हेतु मज़बूर करने के लिए करें तो करने के पहले जरा सोचें ... इस संत कवि की रचनाओं को विशुद्ध लोकोन्मुख नज़रिए से क्यों नहीं पढ़ा और गुना जा सकता. आप को आनन्द भी मिलेगा और इस पृथ्वी को पर्यावरण प्रदूषण से थोड़ी राहत भी..