शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

री !

सुरसरि तट
सर सर लहर सुघर सुन्दर लहर कल कल टल मल सँवर चल कलरव रव री !
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हिन्दी कविता के प्रयोगवादी दौर में एक वर्ग ऐसा भी रहा जो छ्पे हुए शब्दों को भी एक तार्किक समूह में कागज पर रख देने का हिमायती था ताकि कविता की लय (अर्थ और विचार दोनों) छपाई तक में दिखे। उतना तो नहीं लेकिन सुधी जन की टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए यति की दृष्टि से पंक्तियों में तोड़ दें तो कविता यूँ दिखेगी:
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सुरसरि तट

सर सर लहर सुघर सुन्दर
लहर कल कल टल मल
सँवर चल
कलरव
रव री !



15 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! एक पंक्ति मे ही सागर समाया है।
    सर-सर लहर सुघर सुंदर शब्दों की माया है।
    आपका यह अंदाज बहुत भाया है।


    कलम के योद्धा पी सी गोदियाल-"चिट्ठाकार चर्चा"

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. वाह ...!!
    गंगातट पर बैठ के ..क्या मनोहारी छटा का वर्णन कर दिया.....कलरव रव री....
    स्वर्गीय आनंद की अनुभूति हुई है.....!!

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  4. लखनऊ मे कहाँ गंगा माई है ?काहें पब्लिक को जनता जानकार बरगला रहे हैं !
    पूरी कविता के पहले ही लाईन चली गयी क्या ?
    आधी अधूरी पर ही वाहवाही लूट रहे हैं जैसे पहले से ही टोकरी भर के रखी गयी हो
    अब तो आपकी किस्मत से स्पृहा हो चली है !

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  5. अरे भैया! हम बनारस माँ 3 साल रहे हैं। गंगा माई ने हमें पुत्र रत्न का प्रसाद दिया। बहुत जुड़ाव है उनसे।
    आज सुबह सुबह वाणी गीत जी की कविता पढ़ते पढ़ते यह रचना मन में किलोल मारने लगी, वहाँ टिपिया दिया और थोड़ा सा सुधार कर छाप भी दिया।
    पंक्ति तो पूरी है अपने आप में ! लेकिन आप की बात भी सही है। मैं सोच रहा हूँ कि इस लय पर बहुत अच्छी गुनगुनाने लायक विस्तृति भी हो सकती है ..री!
    लेकिन उसके लिए या तो गंगा किनारे बैठा जाय या ब्लॉगों पर कोई ऐसी कविता दिख जाय जो स्वर जगा दे। हाँ कभी अकेले यकायक भी हो सकता है जैसे ऋचाएँ दिखा करती थीं ...
    नखलौ में एक ही सुख है बिजली नहीं जाती। आप के स्नेह तले भाग्य तो फलता फूलता ही रहेगा - इसमें कोई दो राय है का?
    मीन उत्सव की प्रतीक्षा है।

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  6. सुरसरि तट
    सर सर लहर सुघर सुन्दर लहर कल कल टल मल सँवर चल कलरव रव री !


    कुंजीपट खटखटात आखर सब जुटत जात
    सागर सौं भाव पंक्ति गागर में जा समात
    ‘संगम’ प्रयाग छोड़ नखलौ की ओर जात
    काशी के पण्डित भी ईर्ष्यावश कुलकुलात
    कविता से सुप्रभात, देखो री... सीखो री...

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  7. वाह साहब !
    अक्षर और ध्वनि को मिला दिया ! यानी धवनि - बिम्ब , नहीं तो गफलत हो जाय !
    .
    हाँ ,सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी द्वारा प्रस्तुत पंक्तियाँ बड़ी मोहक लगीं ---
    '' कुंजीपट खटखटात आखर सब जुटत जात
    सागर सौं भाव पंक्ति गागर में जा समात
    ‘संगम’ प्रयाग छोड़ नखलौ की ओर जात
    काशी के पण्डित भी ईर्ष्यावश कुलकुलात
    कविता से सुप्रभात, देखो री... सीखो री...

    ............... आभार ,,,

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  8. कछु सुंदर कारन, भटकत मन नगरी नगरी,
    जो कहि न सके ग्रंथ, शब्दन में तोहि कैसे धरी

    अजय कुमार झा

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  9. वाह! एक तें एक पै कविताई को रंग आयो है,
    सबन पै बसंत में अनंग को असर आयो है।

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  10. इसे पंक्तियों में तोड़ना था न !
    या फिर एक ही पंक्ति कर देना था ।

    आप एक लाइन भले लिख दें, कविताई खूब होती है यहाँ । सच ही -
    "कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है .."

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  11. सिद्धार्थ जी की कविता के लिये यह अलग टिप्पणी । आपकी कविता से ज्यादा सुघर ! अंतिम पंक्ति की गति....
    "कविता से सुप्रभात, देखो री... सीखो री..."

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