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रविवार, 15 अगस्त 2010

उरूजे क़ामयाबी पर ... जहाँ सेंध लगती है।

15 अगस्त 1947 से पहले किसी दिन 

उरूजे क़ामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा
रिहा सय्याद के हाथों से अपना आशियाँ होगा।
चखायेंगे मज़ा बरबादिए गुलशन का गलची को
बहार आ जायेगी उस दिन जब अपना बागवाँ होगा।
ऐ दर्दे वतन हरगिज जुदा मत हो मेरे पहलू से
न जाने वादे मुरदिन मैं कहाँ और तू कहाँ होगा।
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तहाँ होगा।
शहीदों के मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।
(अशफाक उल्ला खाँ, 18 दिसम्बर 1927, फाँसी से एक दिन पहले ?) 
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15 अगस्त 1947 के बाद किसी दिन 

भारत -
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहाँ कभी भी प्रयोग किया जाए
बाकी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।

इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में हैं
जो आज भी वृक्ष की परछाइयों से
वक़्त मापते हैं।
उनके पास, सिवाय पेट के
कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते हैं।
उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है
और मौत के अर्थ हैं मुक्ति
जब भी कोई समूचे भारत की
'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है -
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ।
उसे बताऊँ
कि भारत के अर्थ
किसी दुष्यंत से सम्बन्धित नहीं
वरन खेतों में दायर हैं
जहाँ अन्न उगता है
जहाँ सेंध लगती है।
(अवतार सिंह सन्धू 'पाश', प्रथम काव्य संग्रह 'लौहकथा' से)