मंगलवार, 30 सितंबर 2014

पहला पुण्य

थी दे रही भिक्षुणी उपदेश -
देह मिथ्या
थूक विष्ठा मूत्र लार
अस्थि मज्जा मांस रक्त।

वातावरण में था वैराग्य
सब शांत, प्राणवायु हीन।
 
कृपादृष्टि घूमी जो मेरी ओर
देखा काषाय लिपटी सानुपात
बदन वदन ज्यों ताम्र स्वर्ण संग
कह उठा अकस्मात -
सुन्दर, अति सुन्दर रूप!

बह चला मलयानिल
रुकी साँसें हुईं गहमह।

लौटा सोचते मैं -

आह, कैसा पहला पुण्य!   

1 टिप्पणी: