सोमवार, 6 सितंबर 2010

शंकर! धारण कर गरल

shankar
शंकर! धारण कर गरल
स्वहित, जनहित, देशहित।
हो नीलकंठ न भूल
रक्तकीच
छ्प छ्प करते नीच 

कंठ बीच शंकर! 
धारण कर गरल।

न कर विषवमन शंकर!
गहन घन अहम बजे डमरू
निकसें सृजन सूत्र सुकंठ
न कर विषवमन शंकर
धारण कर, बस धारण कर।


गाओ शंकर! ध्रुपद नाद
हो कलुष क्षर अक्षर अक्षर
पाणिनि रचें नव व्याकरण
गाओ शंकर! अक्षर अक्षर
शंकर! धारण कर
बस धारण कर गरल।


वसुधा फैला माया प्रमाद
शृगाल 
बजाते ताल गाल 
कर रहे नाट्य, केहरि नाद।  
यह समय विचित्र
आश्चर्य कहाँ! ठगे चित्र
गाओ शंकर! विराग राग
जड़ चेतन झूमें तज विषाद
खुले पोल खाली खलवाद
गाओ शंकर! अक्षर अक्षर।


शंकर! धारण कर गरल।
एक दृष्टि इधर भी: हे देश शंकर!

6 टिप्‍पणियां:

  1. 'शृगाल' ............??
    ऊपर नटराज चित्र ! शंकर !
    कविता में शब्द चित्र ! शंकर !
    हो विनष्ट खल-प्रमाद ! शंकर !
    डमरू-ध्वनि नाद नाद ! शंकर !

    का हो गया है महराज एकदम मसानी हो गए हैं ?

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  2. शंकरीय नृत्य में ताल थपकाती आपकी मुग्धविस्मृतीय कविता।

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  3. गाओ शंकर! विराग राग
    जड़ चेतन झूमें तज विषाद
    काश शंकर ऐसी पुकार सुन सकें। बहुत अच्छी लगी रचना। धन्यवाद।

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  4. तट-तट होता विषवमन
    पारा पिघले ज्यौं श्रवन
    विषमय हो चला भुवन
    उच्छ्वास विदग्ध मति दहन
    मुरझाता क्यों जाय सुवासित अन्तर्मन
    कौन सी आहट डाले खरल
    शंकर! धारण कर गरल

    आपकी कविता ने मन में हलचल मचा दी।

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  5. सुबह पढ़ा लेकिन कमेंट नहीं कर पाया।

    वैसे कविता बहुत सुंदर ध्वन्यात्मक भाव लिए है। शब्दों का चयन भी सुंदर रहा।

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  6. सुन्दर भाव! वैसे सारा देश एक शंकर के सहारे ही हाथ पर हाथ धरे बैठा दिखता है!

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