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सोमवार, 21 सितंबर 2009

अन्ना ! नहीं तोड़ा जाता ।

तुम्हारी उंगली पकड़ 
यहाँ मैंने चलना सीखा ।
पैर कहाँ रखें कैसे रखें 
तुमसे सीखा ।
तुमसे हुए जाने कितने सम्वाद 
सुलझाते रहे गुत्थियों को।


अचानक इतने चुप क्यों हो गए?
चुप्पी भी ऐसी कि कुरेदने से न टूटे !
....
मौन तुम्हारा अपना वरण है।
मुझे उस पर कुछ नहीं कहना ।
लेकिन मैं अब किसे ढूढूँ 
अपना मौन तोड़ने को ?
.....
भीतर का हाहाकारी मौन 
जिस किसी के आगे नहीं तोड़ा जाता
अन्ना ! नहीं तोड़ा जाता।