सोमवार, 28 जून 2010

न दो

घिर आई बदलियाँ कोई नाम न दो 
स्याह शाम दिये को इलज़ाम न दो


तमाम शहर रोशन गलियों में आब
बेनूर से चेहरे कोई पहचान न दो


ठंडक से परेशाँ घर घर की गर्मी    
बिस्तर बेसलवट वस्ल नाम न दो


बच्चों की रवायत जो खेले खामोश 
ग़ुम खिलखिल को कोई पयाम न दो  

है तासीर इनकी उलूली जुलूली
मेरे गीतों को बहरों की तान न दो

10 टिप्‍पणियां:

  1. द्विपदीयां तो मस्त अंदाज लिए हुए हैं....बहुत सुंदर।

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  2. घिर आई बदलियाँ कोई नाम न दो
    स्याह शाम दिये को इलज़ाम न दो
    ...वाह!

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  3. यदि चढ़ाकर खाक में मिलाना है,
    तो मुझे इज़्ज़त-ए-ईनाम न दो ।

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  4. है तासीर इनकी उलूली जुलूली
    मेरे गीतों को बहरों की तान न दो...

    बेहतर...

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  5. बच्चों की रवायत जो खेले खामोश
    ग़ुम खिलखिल को कोई पयाम न दो
    badhiya ......

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  6. शब्द आसान हों तो उलझनें कमतर हो लें।
    बहर-ओ-काफ़िया का इतना ताम-झाम न दो॥

    :)

    आप तो बवाल पर उतारू हैं। सब लूट ले जाएंगे क्या?

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  7. सच में घिर आई बदलियाँ या बस बहर मिलाने के लिए. :)

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  8. यह तो तरही बन गया या नहीं ? लग तो बड़ा जोरदार रहा है !

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  9. इससे पहले वाली मे ज़्यादा मज़ा आया था ।

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